विशेष विवाह अधिनियम, 1954
(1954 का अधिनियम संख्यांक 43)
[9 अक्तूबर, 1954]
कुछ दशाओं में विशेष प्रकार के विवाह का, इस प्रकार के
तथा कुछ अन्य विवाहों के रजिस्ट्रीकरण का और
विवाह-विच्छेद का उपबन्ध करने के लिए
अधिनियम
भारण गणराज्य के पांचवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :-
अध्याय 1
प्रारम्भिक
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ-(1) यह अधिनियम विशेष विवाह अधिनियम, 1954 कहा जा सकेगा ।
(2) इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत पर है, और यह उन राज्यक्षेत्रों में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, अधिवसित भारत के उन नागरिकों को भी लागू है जो [जम्मू-कश्मीर राज्य में] है ।
(3) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे ।
2. परिभाषाएं-इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,-
। । । । । । ।
(ख) “प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी"-किसी पुरुष और प्रथम अनुसूची के भाग 1 में वर्णित व्यक्तियों में से किसी की तथा किसी स्त्री और उक्त अनुसूची के भाग 2 में वर्णित व्यक्तियों में से किसी की नातेदारी प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी है ।
स्पष्टीकरण 1-नातेदारी के अन्तर्गत-
(क) अर्ध या एकोदर रक्त की नातेदारी और पूर्ण रक्त की नातेदारी दोनों हैं;
(ख) अधर्मज रक्त की नातेदारी और धर्मज रक्त की नातेदारी दोनों हैं;
(ग) दत्तक नातेदारी और रक्त की नातेदारी दोनों हैं,
और इस अधिनियम में नातेदारी द्योतक सब पदों का तदनुसार अर्थ किया जाएगा ।
स्पष्टीकरण 2-पूर्ण रक्त और अर्ध रक्त"-कोई दो व्यक्ति एक दूसरे से पूर्ण रक्त से सम्बन्धित तब कहे जाते हैं जब वे एक ही पूर्वज से एक ही पत्नी द्वारा अवजनित हों और अर्ध रक्त से सम्बन्धित तब कहे जाते हैं जब वे एक ही पूर्वज से किन्तु उसकी भिन्न पत्नियों द्वारा अवजनित हों ।
स्पष्टीकरण 3-“एकोदर रक्त"-दो व्यक्ति एक दूसरे से एकोदर रक्त से सम्बन्धित तब कहे जाते हैं जब वे एक ही पूर्वजा से किन्तु भिन्न पतियों द्वारा अवजनित हों ।
स्पष्टीकरण 4-स्पष्टीकरण 2 और 3 में पूर्वज" के अन्तर्गत पिता और पूर्वजा" के अन्तर्गत माता भी है;
। । । । । । ।
(घ) विवाह अधिकारी के सम्बन्ध में “जिला" से वह क्षेत्र अभिप्रेत है जिसके लिए वह धारा 3 की उपधारा (1) या उपधारा (2) के अधीन उस रूप में नियुक्त किया जाए;
[(ङ) “जिला न्यायालय" से ऐसे किसी क्षेत्र में, जिसके लिए नगर सिविल न्यायालय है, वह न्यायालय और किसी अन्य क्षेत्र में आरम्भिक अधिकारिता का प्रधान सिविल न्यायालय, अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत ऐसा कोई अन्य सिविल न्यायालय, भी है जिसे राज्य सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा इस अधिनियम में दिए गए विषयों के बारे में अधिकारिता रखने वाला विनिर्दिष्ट करे;ट
(च) “विहित" से इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है;
[(छ) किसी संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में “राज्य सरकार" से उसका प्रशासक अभिप्रेत है ।]
3. विवाह अधिकारी-(1) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए राज्य सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, सम्पूर्ण राज्य या उसके किसी भाग के लिए एक या अधिक विवाह अधिकारी नियुक्त कर सकेगी ।
[(2) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए उन राजक्षेत्रों में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, अधिवसित भारत के ऐसे नागरिकों को, जो जम्मू-कश्मीर राज्य में हों, लागू होने के सम्बन्ध में केन्द्रीय सरकार, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, केन्द्रीय सरकार के ऐसे अधिकारियों को, जिन्हें वह ठीक समझे, उस राज्य या उसके किसी भाग के लिए विवाह अधिकारियों के रूप में विनिर्दिष्ट कर सकेगी ।]
अध्याय 2
विशेष विवाहों का अनुष्ठापन
4. विशेष विवाहों के अनुष्ठापन संबंधी शर्तें-विवाहों के अनुष्ठापन सम्बन्धी किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि में किसी बात के होते हुए भी, किन्हीं दो व्यक्तियों का इस अधिनियम के अधीन विवाह अनुष्ठापित किया जा सकेगा यदि उस विवाह के समय निम्नलिखित शर्तें पूरी हो जाती हैं, अर्थात् :-
(क) किसी पक्षकार का पति या पत्नी जीवित नहीं है;
[(ख) दोनों पक्षकारों में से-
(i) कोई पक्षकार चित्त-विकृति के परिणामस्वरूप विधिमान्य सम्पत्ति देने में असमर्थ नहीं है; या
(ii) कोई पक्षकार विधिमान्य सम्पत्ति देने में समर्थ होने पर भी इस प्रकार के या इस हद तक मानसिक विकार से पीड़ित नहीं रहा है कि वह विवाह और सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य है; या
(iii) किसी पक्षकार की उन्मत्तता । । । का बार-बार दौरा नहीं पड़ता रहता है;ट
(ग) पुरुष ने इक्कीस वर्ष की आयु और स्त्री ने अठराह वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है;
[(घ) पक्षकारों में प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी नहीं है :
परन्तु जहां कम से कम एक पक्षकार को शासति करने वाली रूढ़ि उनमें विवाह अनुज्ञात करे वहां ऐसा विवाह, उनमें प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी होते हुए भी अनुष्ठापित किया जा सकेगा; तथा]
[(ङ) जहां विवाह जम्मू-कश्मीर राज्य में अनुष्ठापित किया गया है वहां दोनों पक्षकार उन राज्यक्षेत्रों में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार हैं, अधिवासित भारत के नागरिक हैं ।]
[स्पष्टीकरण-इस धारा में किसी जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में “रूढ़ि" से कोई ऐसा नियम अभिप्रेत है जिसे राज्य सरकार उस जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के सदस्यों को लागू नियम के रूप में, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे :]
परन्तु किसी जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के सदस्यों के सम्बन्ध में ऐसी कोई अधिसूचना तब तक जारी नहीं की जाएगी जब तक राज्य सरकार का यह समाधान न हो जाए कि-
(i) उस नियम का अनुपालन उन सदस्यों में बहुत समय तक लगातार और एकरूपता के साथ होता रहा है;
(ii) वह नियम निश्चित है और अयुक्तियुक्त या लोकनीति-विरुद्ध नहीं है; तथा
(iii) वह नियम केवल कुटुम्ब को लागू होने की दशा में, उस कुटुम्ब द्वारा उसका अनुपालन बन्द नहीं किया गया है ।]
5. आशयित विवाह की सूचना-जब किसी विवाह का इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापन आशयित हो तब विवाह के पक्षकार द्वितीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट प्ररूप में उसकी लिखित सूचना उस जिला के विवाह अधिकारी को देंगे जिसमें विवाह के पक्षकारों में से कम से कम एक ने उस सूचना के दिए जाने की तारीख से ठीक पहले तीस दिन से अन्यून की कालावधि तक निवास किया हो ।
6. विवाह-सूचना पुस्तक और प्रकाशन-(1) विवाह अधिकारी धारा 5 के अधीन दी गई सब सूचनाओं को अपने कार्यालय के अभिलेखों के साथ रखेगा और ऐसे प्रत्येक सूचना की एक सही प्रतिलिपि भी उस प्रयोजन के लिए विहित पुस्तक में, जो विवाह-सूचना पुस्तक कही जाएगी, तत्काल प्रविष्ट करेगा तथा ऐसी पुस्तक उसके निरीक्षण के इच्छुक व्यक्ति द्वारा बिना फीस के, निरीक्षण के लिए सभी उचित समयों पर उपलब्ध रहेगी ।
(2) विवाह अधिकारी प्रत्येक ऐसी सूचना का प्रकाशन उसकी एक प्रतिलिपि अपने कार्यालय के किसी सहजदृश्य स्थान पर लगवाकर कराएगा ।
(3) जहां आशयित विवाह के पक्षकारों में से कोई उस विवाह अधिकारी के, जिसे धारा 5 के अधीन सूचना दी गई हो, जिले की स्थानीय सीमाओं के भीतर स्थायी रूप से निवास न करता हो वहा विवाह अधिकारी उस सूचना की प्रतिलिपि उस जिले के विवाह अधिकारी को भी भिजवाएगा जिसकी सीमाओं के भीतर ऐसा पक्षकार स्थायी रूप से निवास करता हो और तब वह विवाह अधिकारी उसकी प्रतिलिपि अपने कार्यालय के किसी सहज-दृश्य स्थान पर लगवाएगा ।
7. विवाह के प्रति आक्षेप-(1) धारा 6 की उपधारा (2) के अधीन सूचना के प्रकाशन की तारीख से तीस दिन की समाप्ति के पूर्व कोई व्यक्ति उस विवाह के प्रति इस आधार पर आक्षेप कर सकेगा कि वह धारा 4 में विनिर्दिष्ट किसी एक या अधिक शर्तों का उल्लंघन करेगा ।
(2) उस तारीख से, जब आशयित विवाह की सूचना धारा 6 की उपधारा (2) के अधीन प्रकाशित की गई हो, तीस दिन की समाप्ति के पश्चात् वह विवाह, जब तक उसके प्रति पहले की उपधारा (1) के अधीन आक्षेप नहीं कर दिया गया हो, अनुष्ठापित किया जा सकेगा ।
(3) आक्षेप की प्रकृति विवाह अधिकारी द्वारा विवाह-सूचना पुस्तक में लेखबद्ध की जाएगी, यदि आवश्यक हो तो आक्षेप करने वाले व्यक्ति को पढ़कर सुनाई और ससझाई जाएगी और उस पर उस व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से हस्ताक्षर किए जाएंगे ।
8. आक्षेप के प्राप्त होने पर प्रक्रिया-(1) यदि आशयित विवाह के प्रति धारा 7 के अधीन आक्षेप किया जाता है तो विवाह अधिकारी वह विवाह तब तक अनुष्ठापित न करेगा जब तक वह उस आक्षेप के विषय में जांच न कर ले और उसका समाधान न हो जाए कि वह आक्षेप ऐसी नहीं है कि विवाह अनुष्ठापित न किया जाए या जब तक उस व्यक्ति द्वारा, जिसने आक्षेप किया हो, वह आक्षेप वापस न ले लिया जाए; किन्तु विवाह अधिकारी आक्षेप के विषय में जांच करने और उसका विनिश्चय करने में आक्षेप की तारीख से तीस दिन से अधिक नहीं लगाएगा ।
(2) यदि विवाह अधिकारी आक्षेप को ठीक ठहराता है और उस विवाह को अनुष्ठापित करने से इन्कार करता है तो आशयित विवाह का कोई पक्षकार ऐसे इंकार की तारीख से तीस दिन की कालावधि के भीतर उस जिला न्यायालय में अपील कर सकेगा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर उस विवाह अधिकारी का कार्यालय हो और उस अपील में जिला न्यायालय का विनिश्चय अन्तिम होगा तथा विवाह अधिकारी उस न्यायालय के विनिश्चय के अनुरूप कार्य करेगा ।
9. जांच के बारे में विवाह अधिकारियों की शक्तियां-(1) धारा 8 के अधीन किसी जांच के प्रयोजन के लिए विवाह अधिकारी को निम्नलिखित विषयों, अर्थात् :-
(क) साक्षियों को समन करने और उनको हाजिर कराने तथा शपथ पर उनकी परीक्षा करने;
(ख) प्रकटीकरण और निरीक्षण;
(ग) दस्तावेजों पेश करने के लिए विवश करने;
(घ) शपथ-पत्रों पर साक्ष्य लेने; तथा
(ङ) साक्षियों की परीक्षा के लिए कमीशन निकालने,
की बाबत, वही शक्तियां होंगी जो वाद का विचारण करते समय सिविल न्यायालय में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के अधीन निहित होती हैं और विवाह अधिकारी के समक्ष कोई कार्यवाही भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 193 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही समझी जाएगी ।
स्पष्टीकरण-विवाह अधिकारी की अधिकारिता की स्थानीय सीमाएं ही किसी व्यक्ति को साक्ष्य देने के लिए हाजिर कराने के प्रयोजन के लिए उस अधिकारी के जिले की स्थानीय सीमाएं होंगी ।
(2) यदि विवाह अधिकारी को यह प्रतीत होता है कि आशयित विवाह के प्रति किया गया आक्षेप उचित नहीं है और सद्भावपूर्वक नहीं किया गया है तो वह आक्षेप करने वाले व्यक्ति पर प्रतिकर के रूप में खर्चा अधिरोपित कर सकेगा, जो एक हजार रुपए से अधिक न होगा, और संपूर्ण या उसका कोई भाग आशयित विवाह के पक्षकारों को दिलवा सकेगा तथा खर्चे के बारे में इस प्रकार दिया गया कोई आदेश उसी रीति से निष्पादित किया जा सकेगा जिससे उस जिला न्यायालय द्वारा पारित डिक्री की जाती हो जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर विवाह अधिकारिता का कार्यालय हो ।
10. बाहर के विवाह अधिकारी को आक्षेप प्राप्त होने पर प्रक्रिया-जहां [जम्मू-कश्मीर राज्य में आशयित विवाह के बारे में] कोई आक्षेप उस राज्य में विवाह अधिकारी से धारा 7 के अधीन किया जाए और विवाह अधिकारी के मन में उस विषय में ऐसी जांच करने के पश्चात्, जैसी वह ठीक समझे, उस बाबत शंका बनी रहे वहां वह विवाह अनुष्ठापित नहीं करेगा, किन्तु उस विषय में ऐसे कथन के साथ जैसा वह ठीक समझे अभिलेख केन्द्रीय सरकार को भेजेगा और केन्द्रीय सरकार उस विषय में ऐसी जांच करने के पश्चात् और ऐसी सलाह अभिप्राप्त करने के पश्चात् जैसी वह ठीक समझे उस पर अपना विनिश्चय लिखित रूप में विवाह अधिकारी को देगी, जो केन्द्रीय सरकार के विनिश्चय के अनुरूप कार्य करेगा ।
11. पक्षकारों और साक्षियों द्वारा घोषणा-विवाह का अनुष्ठापन होने के पूर्व पक्षकार और तीन साक्षी इस अधिनियम की तृतीय अनुसूची में विनिर्दिष्ट प्ररूप में घोषणा पर हस्ताक्षर विवाह अधिकारी की उपस्थिति में करेंगे तथा उस घोषणा पर विवाह अधिकारी प्रतिहस्ताक्षर करेगा ।
12. अनुष्ठापन का स्थान और रूप-(1) विवाह, विवाह अधिकारी के कार्यालय में या वहां से उचित दूरी के भीतर ऐसे अन्य स्थान पर, जैसा दोनों पक्षकार चाहें, और ऐसी शर्तों पर तथा ऐसी अतिरिक्त फीस देने पर, जिन्हें विहित किया जाए, अनुष्ठापित किया जा सकेगा ।
(2) विवाह किसी भी रूप में, जिसे पक्षकार अपनाना पसन्द करें, अनुष्ठापित किया जा सकेगा :
परन्तु जब तक प्रत्येक पक्षकार दूसरे पक्षकार से विवाह अधिकारी और तीन साक्षियों की उपस्थिति में तथा ऐसी भाषा में जिसे पक्षकार समझ सकें यह न कहे कि “मैं (क) तुम (ख) को अपनी विधिपूर्ण पत्नी स्वीकार करता हूं (या अपना विधिपूर्ण पति स्वीकार करती हूं)" तब तक वह पूर्ण और पक्षकारों पर आबद्धकर न होगा ।
13. विवाह का प्रमाणपत्र-(1) जब विवाह अनुष्ठापित हो जाए तब विवाह अधिकारी चतुर्थ अनुसूची में विनिर्दिष्ट प्ररूप में उसका प्रमाणपत्र उस प्रयोजन के लिए अपने द्वारा रखी गई पुस्तक में प्रविष्ट करेगा, जो विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक कही जाएगी, और ऐसे प्रमाणपत्र पर विवाह के पक्षकार और तीनों साक्षी हस्ताक्षर करेंगे ।
(2) विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक में विवाह अधिकारी द्वारा प्रमाणपत्र प्रविष्ट किए जाने पर वह प्रमाणपत्र इस तथ्य का निश्चायक साक्ष्य समझा जाएगा कि इस अधिनियम के अधीन विवाह अनुष्ठापित हो गया है तथा साक्षियों के हस्ताक्षरों के सम्बन्ध में सब प्ररूपिताओं का अनुपालन हो गया है ।
14. तीन मास के भीतर विवाह का अनुष्ठापन न होने पर नई सूचना का दिया जाना-जब किसी विवाह का अनुष्ठान उस तारीख से, जब उसकी सूचना विवाह अधिकारी को धारा 5 द्वारा अपेक्षित रूप में दी गई हो, तीन कलैण्डर मास के भीतर अथवा जहां धारा 8 की उपधारा (2) के अधीन अपील फाइल की गई हो वहां उस अपील पर जिला न्यायालय के विनिश्चय की तारीख से तीन मास के भीतर, अथवा जहां धारा 10 के अधीन किसी मामले का अभिलेख केन्द्रीय सरकार को भेजा गया हो वहां केन्द्रीय सरकार के विनिश्चय की तारीख से तीन मास के भीतर, नहीं होता, तब वह सूचना और उससे पैदा होने वाली सब अन्य कार्यवाहियां व्यपगत हुई समझी जाएंगी और जब तक इस अधिनियम में दी गई रीति से नई सूचना नहीं दी जाती, कोई विवाह अधिकारी उस विवाह का अनुष्ठापन नहीं करेगा ।
अध्याय 3
अन्य रूपों में अनुष्ठापित विवाहों का रजिस्ट्रीकरण
15. अन्य रूपों में अनुष्ठापित विवाहों का रजिस्ट्रीकरण- विशेष विवाह अधिनियम, 1872 (1872 का 38) के अधीन या इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित विवाह से भिन्न विवाह, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ के पूर्व अनुष्ठापित किया गया हो या उसके पश्चात् उन राज्यक्षेत्रों में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है विवाह अधिकारी द्वारा इस अध्याय के अधीन रजिस्ट्रीकृत किया जा सकेगा यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी हों जाएं, अर्थात् :-
(क) पक्षकारों का परस्पर विवाह को चुका है और वे तब से बराबर पति-पत्नी के रूप में साथ रह रहे हैं
(ख) किसी पक्षकार का एक से अधिक पति या पत्नी रजिस्ट्रीकरण के समय जीवित नहीं है;
(ग) कोई पक्षकार रजिस्ट्रीकरण के समय जड़ या पागल नहीं है;
(घ) पक्षकार रजिस्ट्रीकरण के समय इक्कीस वर्ष की आयु प्राप्त कर चुके हैं;
(ङ) पक्षकारों में प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी नहीं है :
परन्तु इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठापित विवाह की दशा में यह शर्त पक्षकारों में से प्रत्येक को शासित करने वाली किसी ऐसी विधि के या विधि का बल रखने वाली रूढ़ि या प्रथा के अध्यधीन होगी जिससे उन दोनों में विवाह अनुज्ञात हो; तथा
(च) पक्षकार उस विवाह अधिकारी के जिले के भीतर उस तारीख के ठीक पहले, जब विवाह के रजिस्ट्रीकरण के लिए आवेदन विवाह अधिकारी से किया गया हो, कम से कम तीस दिन की कालावधि तक निवास करते रहे हैं ।
16. रजिस्ट्रीकरण के लिए प्रक्रिया-इस अध्याय के अधीन विवाह के रजिस्ट्रीकरण के लिए विवाह के दोनों पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित आवेदन की प्राप्ति पर विवाह अधिकारी उसकी लोक सूचना ऐसी रीति से देगा जैसी विहित की जाए और आक्षेपों के लिए तीन दिन की कालावधि अनुज्ञात करने के पश्चात् तथा उस कालावधि के भीतर प्राप्त किसी आक्षेप को सुनने के पश्चात्, यदि उसका सामाधान हो जाए कि धारा 15 में वर्णित सब शर्तें पुरी हो जाती हैं, तो वह विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक में विवाह का प्रमाणपत्र, उस प्ररूप में जो पंचम अनुसूची में विनिर्दिष्ट है प्रविष्ट करेगा और ऐसे प्रमाणपत्र पर विवाह के पक्षकार और तीनों साक्षी हस्ताक्षर करेंगे ।
17. धारा 16 के अधीन आदेशों से अपीलें-विवाह को इस अध्याय के अधीन रजिस्ट्रीकृत करने से इन्कार करने के विवाह अधिकारी के किसी आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति, उस आदेश की तारीख से तीस दिन के भीतर, उस आदेश के विरुद्ध अपील उस जिला न्यायालय में कर सकेगा जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर उस विवाह अधिकारी का कार्यालय हो और उस अपील पर उस जिला न्यायालय का विनिश्चय अन्तिम होगा तथा वह विवाह अधिकारी, जिससे आवेदन किया गया था, ऐसे विनिश्चय के अनुरूप कार्य करेगा ।
18. इस अध्याय के अधीन विवाह के रजिस्ट्रीकरण का प्रभाव-धारा 24 की उपधारा (2) के उपबन्धों के अध्यधीन रहते हुए, जहां विवाह का प्रमाणपत्र विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक में इस अध्याय के अधीन अन्तिम रूप से प्रविष्ट कर लिया गया हो वहां उस विवाह के बारे में ऐसी प्रविष्टि की तारीख से यह समझा जाएगा कि वह इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित विवाह है और विवाह की तारीख के पश्चात् पैदा हुई सब संतान के बारे में (जिनके नाम भी विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक में दर्ज किए जाएंगे) सब विषयों में यह समझा जाएगा कि वे अपने माता-पिता की धर्मज संतान हैं और सदैव रही हैं :
परन्तु इस धारा की किसी बात का यह अर्थ नहीं किया जाएगा कि वह किसी ऐसी संतान को अपने माता-पिता से भिन्न किसी व्यक्ति की सम्पत्ति में या उस पर कोई अधिकार किसी ऐसी दशा में प्रदान करती है जब ऐसी संतान ऐसा कोई अधिकार रखने या अर्जित करने के लिए इस अधिनियम के पारित न होने की दशा में इस कारण अयोग्य होती कि वह अपने माता-पिता की धर्मज संतान नहीं है ।
अध्याय 4
इस अधिनियम के अधीन विवाह के परिणाम
19. अविभक्त कुटुम्ब के सदस्य पर विवाह का प्रभाव-अविभक्त कुटुम्ब के ऐसे सदस्य के, जो हिन्दू, बौद्ध, सिख या जैन धर्म को मानता हो, इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित विवाह के बारे में यह समझा जाएगा कि वह उसे उस कुटुम्ब से पृथक् कर देता है ।
20. अधिकारों और निर्योग्यताओं का अधिनियम द्वारा प्रभावित न होना-धारा 19 के उपबन्धों के अध्यधीन रहते हुए, कोई व्यक्ति, जिसका विवाह इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित हो, किसी संपत्ति पर उत्तराधिकार के बारे में वही अधिकार रखेगा और उन्हीं निर्योग्यताओं के अध्यधीन होगा जो वह व्यक्ति रखता या जिनके अध्यधीन वह व्यक्ति होता जिसे जाति निर्योग्यता निवारण, अधिनियम, 1850 (1850 का 21) लागू होता ।
21. अधिनियम के अधीन विवाहित पक्षकारों की संपत्ति का उत्तराधिकार-भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (1925 का 39) में कुछ समुदायों के सदस्यों को उसके लागू होने के सम्बन्ध में किन्हीं निर्बंधनों के होते हुए भी, किसी ऐसे व्यक्ति की सम्पत्ति का, जिसका विवाह इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित हुआ हो, और ऐसे विवाह की संतान की सम्पत्ति का उत्तराधिकार उक्त अधिनियम के उपबन्धों द्वारा विनियमित होगा और वह अधिनियम इस धारा के प्रयोजनों के लिए इस प्रकार प्रभावी होगा मानो भाग 5 के अध्याय 3 (पारसी निर्वसीयतों के लिए विशेष नियम) का उससे लोप कर दिया गया हो ।
[21क. कतिपय मामलों में विशेष उपबन्ध-जहां किसी ऐसे व्यक्ति का, जो हिन्दू, बौद्ध, सिख या जैन धर्मावलम्बी है, विवाह इस अधिनियम के अधीन किसी ऐसे व्यक्ति के साथ अनुष्ठापित होता है, जो हिन्दू, बौद्ध, सिख या जैन धर्मावलम्बी है, वहां धारा 19 और धारा 21 लागू नहीं होगी और धारा 20 का वह भाग भी लागू नहीं होगा जिससे अयोग्यता सृजित होती है ।]
अध्याय 5
दाम्पत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन और न्यायिक पृथक्करण
22. दापत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन-जब पति या पत्नी ने अपने को दूसरे के साहचर्य से उचित कारण के बिना अलग कर लिया हो तब व्यथित पक्षकार दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए जिला न्यायालय में आवेदन, अर्जी द्वारा, कर सकेगा और न्यायालय उस अर्जी में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में तथा इस बारे में कि आवेदन को मंजूर न करने का कोई वैध आधार नहीं है, अपना समाधान हो जाने पर तद्नुसार दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन डिक्री कर सकेगा ।
[स्पष्टीकरण-जहां यह प्रश्न उठता है कि क्या साहचर्य से अलग होने के लिए उचित कारण है वहां उचित कारण साबित करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो साहचर्य से अलग हुआ है ।]
23. न्यायिक पृथक्करण-(1) न्यायिक पृथक्करण के लिए अर्जी पति या पत्नी द्वारा-
(क) [धारा 27 की उपधारा (1) [और उपधारा (1क)] में] विनिर्दिष्ट आधारों में से किसी आधार पर, जिस पर विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी पेश की जा सकती हो; अथवा
(ख) दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन की डिक्री का अनुपालन करने में असफलता के आधार पर,
जिला न्यायालय में पेश की जा सकेगी और न्यायालय उस अर्जी में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में तथा इस बारे में कि आवेदन को मंजूर न करने का कोई वैध आधार नहीं है, अपना समाधान हो जाने पर तद्नुसार न्यायिक पृथक्करण डिक्री कर सकेगा ।
(2) जहां न्यायालय न्यायिक पृथक्करण की डिक्री दे वहां अर्जीदार प्रत्यर्थी के साथ सहवास करने के लिए बाध्य नहीं होगा किन्तु किसी पक्षकार के अर्जी द्वारा आवेदन करने पर तथा उस अर्जी में किए गए कथनों की सत्यता के बारे में अपना समाधान हो जाने पर वह डिक्री को, जब वह ऐसा करना न्यायसंगत और उचित समझे, विखंडित कर सकेगा ।
अध्याय 6
विवाह की अकृतता और विवाह-विच्छेद
24. शून्य विवाह-(1) इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित विवाह अकृत और शून्य होगा [और विवाह के किसी पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार के विरुद्ध पेश की गई अर्जी पर] अकृतता की डिक्री द्वारा 4[ऐसा घोषित किया जा सकेगा,] यदि-
(i) धारा 4 के खण्ड (क), (ख), (ग), और (घ) में विनिर्दिष्ट शर्तों में से कोई पूरी न की गई हो, अथवा
(ii) प्रत्यर्थी विवाह के समय और वाद संस्थित किए जाने के समय नपुंसक रहा हो ।
(2) इस धारा की कोई बात किसी ऐसे विवाह को लागू न होगी जिसके बारे में धारा 18 के अर्थ में यह समझा जाए कि वह इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित किया गया, किन्तु ऐसे किसी विवाह का अध्याय 3 के अधीन रजिस्ट्रीकरण, यदि वह धारा 15 के खण्ड (क) से खण्ड (ङ) तक में विनिर्दिष्ट शर्तों में से किसी के उल्लंघन में किया गया हो तो, प्रभावहीन घोषित किया जा सकेगा :
परन्तु ऐसी घोषणा उस दशा में नहीं की जाएगी जब धारा 17 के अधीन अपील की गई हो और जिला न्यायालय का विनिश्चय अन्तिम हो गया हो ।
25. शून्यकरणीय विवाह-इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित विवाह शून्यकरणीय होगा और अकृतता की डिक्री द्वारा बातिल किया जा सकेगा यदि-
(i) प्रत्यर्थी के विवाहोत्तर संभोग से जानबूझकर इन्कार के कारण विवाहोत्तर संभोग नहीं हो पाया हो; अथवा
(ii) प्रत्यर्थी विवाह के समय अर्जीदार से भिन्न किसी व्यक्ति द्वारा गर्भवती थी; अथवा
(iii) विवाह के लिए किसी पक्षकार की सम्पत्ति भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) में यथा परिभाषित प्रपीड़न या कपट द्वारा अभिप्राप्त की गई हो :
परन्तु खण्ड (ii) में विनिर्दिष्ट दशा में न्यायालय तब तक डिक्री नहीं देगा जब तक उसका यह समाधान न हो जाए कि-
(क) अर्जीदार अभिकथित तथ्यों से विवाह के समय अनभिज्ञ था;
(ख) कार्यवाही विवाह की तारीख से एक वर्ष के भीतर संस्थित कर दी गई थी; तथा
(ग) अर्जीदार की सम्मति से वैवाहिक संभोग डिक्री के लिए आधारों के अस्तित्व का पता अर्जीदार को चल जाने के समय से नहीं हुआ है :
परन्तु यह और कि खण्ड (त्त्त्) में विनिर्दिष्ट दशा में न्यायालय डिक्री न देगा यदि-
(क) कार्यवाही, यथास्थिति, प्रपीड़न के बन्द हो जाने या कपट का पता चलने के पश्चात् एक वर्ष के भीतर संस्थित न कर दी गई हो; अथवा
(ख) अर्जीदार, यथास्थिति, प्रपीड़न बन्द हो जाने या कपट का पता चलने के पश्चात् अपनी स्वतन्त्र सम्मति से विवाह के दूसरे पक्षकार के साभ पति या पत्नी के रूप में रहा या रही हो ।
[26. शून्य और शून्यकरणीय विवाह की संतान की धर्मजता-(1) इस बात के होते हुए भी कि विवाह धारा 24 के अधीन अकृत और शून्य है, ऐसे विवाह की कोई संतान धर्मज होगी, जो विवाह के विधिमान्य होने की दशा में धर्मज होती, चाहे ऐसी सन्तान का जन्म विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के प्रारम्भ से पूर्व या पश्चात् हुआ हो और चाहे उस विवाह के सम्बन्ध में अकृतता की डिक्री इस अधिनियम के अधीन मंजूर की गई हो या नहीं और चाहे वह विवाह इस अधिनियम के अधीन अर्जी से भिन्न आधार पर शून्य अभिनिर्धारित किया गया हो या नहीं ।
(2) जहां धारा 25 के अधीन शून्यकरणीय विवाह के संबंध में अकृतता की डिक्री मंजूर की जाती है वहां डिक्री की जाने के पूर्व जनित या गर्भाहित ऐसी कोई संतान, जो यदि विवाह डिक्री की तारीख को अकृत किए जाने के बजाय विघटित कर दिया गया होता तो विवाह के पक्षकारों की धर्मज संतान होती, अकृतता की डिक्री होते हुए भी उनकी धर्मज संतान समझी जाएगी ।
(3) उपधारा (1) या उपधारा (2) की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह ऐसे विवाह की किसी संतान को, जो अकृत और शून्य है या जिसे धारा 25 के अधीन अकृतता की डिक्री द्वारा अकृत किया गया है, उसके माता-पिता से भिन्न किसी व्यक्ति की संपत्ति में या संपत्ति के लिए कोई अधिकार किसी ऐसी दशा में प्रदान करती है जिसमें कि यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो वह संतान अपने माता-पिता की र्धमज संतान न होने के कारण ऐसा कोई अधिकार रखने या अर्जित करने में असमर्थ होती ।]
27. विवाह-विच्छेद- [(1)] इस अधिनियम के उपबंधों और तद्धीनबनाए गए नियमों के अध्यधीन रहते हुए, विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी जिला न्यायालय में पति या पत्नी द्वारा इस आधार पर पेश की जा सकेगी कि-
[(क) प्रत्यर्थी ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अपने पति या अपनी पत्नी से भिन्न किसी व्यक्ति के साथ स्वेच्छया मैथुन किया है; अथवा
(ख) प्रत्यर्थी ने अर्जी के पेश किए जाने के ठीक पहले कम से कम दो वर्ष की निरन्तर कालावधि भर अर्जीदार को अभित्यक्त रखा है; अथवाट]
(ग) प्रत्यर्थी भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) में यथा परिभाषित अपराध के लिए सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास का दण्ड भोग रहा है;
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(घ) प्रत्यर्थी ने विवाह के अनुष्ठान के पश्चात् अर्जीदार से क्रूरता का व्यवहार किया है; अथवा
[(ङ) प्रत्यर्थी असाध्य रूप से विकृत-चित्त रहा है अथवा निरन्तर या आंतरायिक रूप से इस प्रकार के और इस हद तक मानसिक विकास से पीड़ित रहा है कि अर्जीदार से युक्तियुक्त रूप से यह आशा नहीं की जा सकती है कि वह प्रत्यर्थी के साथ रहे ।
स्पष्टीकरण-(क) इस खण्ड में “मानसिक विकार" पद से मानसिक बीमारी, मास्तिष्क का संरोध या अपूर्ण विकास, मनोविकृति या मस्तिष्क का कोई अन्य विकार या निःशक्तता अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत विखंडित मनस्कता है;
(ख) “मनोविकृति" पद से मस्तिष्क का दीर्घ स्थायी विकार या निःशक्तता (चाहे इसमें वृद्धि की असामान्यता हो या नहीं) अभिप्रेत है जिसके परिणामस्वरूप प्रत्यर्थी का आचरण असामान्य रूप से आक्रामक या गंभीर रूप से अनुत्तरदायी हो जाता है और चाहे उसके लिए चिकित्सीय उपचार अपेक्षित हो या नहीं अथवा ऐसा उपचार किया जा सकता हो या नहीं; अथवा
(च) प्रत्यर्थी संचारी रूप के रतिज रोग से पीड़ित रहा है; अथवा]
(छ) *** प्रत्यर्थी कुष्ठ से पीड़ित रहा है जो रोग उसे अर्जीदार से नहीं लगा था; अथवा]
(ज) प्रत्यर्थी के बारे में सात वर्ष या उससे अधिक की कालावधि में उन व्यक्तियों द्वारा, जिन्होंने प्रत्यर्थी के बारें में, यदि वह जीवित होता तो, स्वाभाविकतया सुना होता, यह नहीं सुना गया है कि वह जीवित है ।] ***
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[स्पष्टीकरण-इस उपधारा में “अभित्यजन" पद से विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा अर्जीदार का ऐसा अभित्यजन अभिप्रेत है जो, उचित हेतुक के बिना और ऐसे पक्षकार की सम्मति के बिना या इच्छा के विरुद्ध हो और इसके अन्तर्गत विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा अर्जीदार की जानबूझकर उपेक्षा करना भी है और इस पद के व्याकरणिक रूपभेदों तथा सजातीय पदों के अर्थ तदनुसार लगाए जाएंगे ।]
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[(1क) पत्नी भी विवाह-विच्छेद के लिए निम्नलिखित आधार पर जिला न्यायालय में अर्जी पेश कर सकेगी-
(i) कि उसका पति विवाह के अनुष्ठापन के पश्चात् बलात्कार, गुदा-मैथुन या पशुगमन का दोषी हुआ है ;
(ii) कि हिन्दू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 (1956 का 78) की धारा 18 के अधीन बाद में या दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) की धारा 125 के अधीन [या दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) की तत्समान धारा 488 के अधीन)] कार्यवाही में, पत्नी को भरण-पोषण दिलवाने के लिए, पति के विरुद्ध, यथास्थिति, डिर्की या आदेश इस बात के होते हुए भी पारित किया गया है कि वह अलग रहती थी और ऐसी डिक्री या आदेश के पारित किए जाने के समय से एक वर्ष या ऊपर की कालावधि भर उन पक्षकारों के बीच सहवास का पुनरारंभ नहीं हुआ है ।]
[(2) इस अधिनियम के उपबंधों और तद्धीनबनाए गए नियमों के अध्यधीन रहते हुए, विवाह का, जो चाहे विशेष विवाह (संशोधन) अधिनियम, 1970 के प्रारम्भ के पूर्व अनुष्ठापित किया गया हो या, उसके पश्चात् कोई पक्षकार विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी जिला न्यायालय में इस आधार पर पेश कर सकेगा कि-
(i) ऐसी कार्यवाही में, जिसके वे पक्षकार थे, न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित किए जाने के पश्चात् एक वर्ष या उससे अधिक की कालावधि तक विवाह के पक्षकारों के बीच सहवास का पुनरारंभ नहीं हुआ है; अथवा
(ii) ऐसी कार्यवाही में जिसके वे पक्षकार थे, दांपत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए डिक्री पारित किए जाने के पश्चात् एक वर्ष या उससे अधिक की कालावधि तक विवाह के पक्षकारों के बीच दांपत्य अधिकारों का प्रत्यास्थापन नहीं हुआ है ।]
[27क. विवाह-विच्छेद की कार्यवाहियों में वैकल्पिक अनुतोष-इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिए अर्जी पर, उस दशा को छोड़कर जिसमें अर्जी धारा 27 की उपधारा (1) के खण्ड (ज) में वर्णित आधार पर है, यदि न्यायालय मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए न्यायसंगत समझता है तो, वह विवाह-विच्छेद की डिक्री के बजाय न्यायिक-पृथक्करण के लिए डिक्री पारित कर सकेगा ।]
28. पारस्परिक सम्मति से विवाह-विच्छेद-(1) इस अधिनियम के उपबंधों और तद्धीन बनाए गए नियमों के अध्यधीन रहते हुए, दोनों पक्षकार मिलकर विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी जिला न्यायालय में इस आधार पर पेश कर सकेंगे कि वे एक वर्ष या उससे अधिक से अलग-अलग रह रहे हैं और वे एक साथ नहीं रह सके हैं तथा वे इस बात के लिए परस्पर सहमत हो गए हैं कि विवाह विघटित कर देना चाहिए ।
(2) [उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट अर्जी के पेश किए जाने की तारीख से छह मास के पश्चात् और अठारह मास के भीतर दोनों पक्षकारों द्वारा किए गए प्रस्ताव पर,] यदि इस बीच में अर्जी वापस न ले ली गई हो तो, जिला न्यायालय पक्षकारों को सुनने के पश्चात् और ऐसी जांच, जैसी वह ठीक समझे, करने के पश्चात् अपना यह समाधान कर लेने पर कि विवाह इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित हुआ है और अर्जी में किए गए प्राक्कथन सही हैं, यह घोषणा करने वाली डिक्री पारित करेगा कि विवाह डिक्री की तारीख से विघटित हो जाएगा ।
29. विवाह के पश्चात् प्रथम तीन वर्षों के दौरान विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी देने पर निर्बन्धन-(1) विवाह-विच्छेद के लिए कोई अर्जी जिला न्यायालय में तब तक पेश न की जाएगी [जब तक अर्जी पेश किए जाने की तारीख तक उस तारीख से एक वर्ष व्यतीत न हो गया हो] जब विवाह का प्रमाणपत्र विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक में प्रविष्ट किया गया था :
परन्तु जिला न्यायालय अपने से आवेदन किए जाने पर कोई अर्जी 1[एक वर्ष व्यतीत होने से पहले] पेश करने की अनुज्ञा इस आधार पर दे सकेगा कि वह मामला अर्जीदार द्वारा असाधारण कष्ट भोगे जाने का या प्रत्यर्थी की असाधारण दुराचारिता का है; किन्तु यदि जिला न्यायालय को अर्जी की सुनवाई से यह प्रतीत हो कि अर्जीदार ने अर्जी पेश करने की इजाजत किसी दुर्व्यपदेशन द्वारा या मामले की प्रकृति को छिपाने द्वारा अभिप्राप्त की थी तो जिला न्यायालय डिक्री देने की दशा में इस शर्त के अध्यधीन ऐसा कर सकेगा कि डिक्री तब तक प्रभावी न होगी जब तक विवाह की तारीख से [एक वर्ष का अवसान] न हो जाए, अथवा उस अर्जी को, किसी अन्य ऐसी अर्जी पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, खारिज कर सकेगा जो [उक्त एक वर्ष के अवसान] के पश्चात् उन्हीं या सारतः उन्हीं तथ्यों पर दी जाए जो ऐसे खारिज की गई अर्जी के समर्थन में साबित किए गए ।
(2) विवाह की तारीख से [एक वर्ष के अवसान] के पहले विवाह-विच्छेद की अर्जी पेश करने की इजाजत के लिए इस धारा के अधीन आवेदन का निपटारा करने में जिला न्यायालय उस विवाह से उत्पन्न किसी संतान के हितों का तथा इस बात का ध्यान रखेगा कि क्या पक्षकारों के बीच; [उक्त एक वर्ष] के अवसान के पहले पुनर्मिलाप की कोई उचित अधिसंभाव्यता है ।
30. विच्छिन विवाह व्यक्तियों का पुनर्विवाह-जब विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह विघटित कर दिया गया हो और या तो डिक्री के विरुद्ध अपील करने का कोई अधिकार न हो या अपील का ऐसा अधिकार होने की दशा में अपील करने के समय का अवसान अपील पेश किए गए बिना हो गया हो या अपील पेश की तो गई हो किन्तु खारिज कर दी गई हो, *** विवाह का कोई पक्षकार पुनविवाह कर सकेगा ।
अध्याय 7
अधिकारिता और प्रक्रिया
31. वह न्यायालय जिससे अर्जी दी जानी चाहिए- [(1) अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन प्रत्येक अर्जी उस जिला न्यायालय में पेश की जाएगी जिसकी आरम्भिक सिविल अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के अंदर,-
(i) विवाह का अनुष्ठान हुआ था; या
(ii) प्रत्यर्थी, अर्जी के पेश किए जाने के समय, निवास करता है; या
(iii) विवाह के पक्षकारों ने अन्तिम बार एक साथ निवास किया था; या
[(iiiक) यदि पत्नी अर्जीदार है तो वहां अर्जी पेश किए जाने के समय निवास कर रही है; या]
(iv) अर्जीदार अर्जी के पेश किए जाने के समय निवास कर रहा है, यह ऐसे मामले में, जिसमें प्रत्यर्थी उस समय ऐसे राज्यक्षेत्र के बाहर निवास कर रहा है जिस पर इस अधिनियम का विस्तार है अथवा वह जीवित है या नहीं इसके बारे में सात वर्ष या उससे अधिक की कालावधि के भीतर उन्होंने कुछ नहीं सुनता है, जिन्होंने उसके बारे में, यदि वह जीवित होता तो, स्वाभाविकतया सुना होता ।]
(2) न्यायालय द्वारा उपधारा (1) के अधीन प्रयोक्तव्य अधिकारिता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना यह है कि जिला न्यायालय विवाह की अकृतता के लिए या विवाह-विच्छेद के लिए पत्नी द्वारा दी गई अर्जी इस उपधारा के आधार पर ग्रहण कर सकेगा यदि वह उन राज्यक्षेत्रों में अधिवासित हो जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है और वह उक्त राज्यक्षेत्रों में निवास करती हो तथा विवाह की अकृतता या विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी पेश करने के ठीक पहले तीन वर्ष की कालावधि तक वहां मामूली तौर पर निवास करती रही हो और पति उक्त राज्यक्षेत्रों में निवास न करता हो ।
32. अर्जियों की अन्तर्वस्तु और सत्यापन-(1) अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन प्रत्येक अर्जी उन सब तथ्यों का, जिन पर अनुतोष का दावा आधारित हो, कथन इतने स्पष्ट तौर पर करेगी जितना उस मामले में हो सके और वह यह कथन भी करेगी कि अर्जीदार और विवाह के दूसरे पक्षकार के बीच दुस्संधि नहीं है ।
(2) प्रत्येक ऐसी अर्जी में अन्तर्विष्ट कथन अर्जीदार द्वारा या किसी अन्य सक्षम व्यक्ति द्वारा उस रीति से सत्यापित किए जाएंगे जो वादपत्रों के सत्यापन के लिए विधि द्वारा अपेक्षित है और सुनवाई में साक्ष्य के रूप में निर्दिष्ट किए जा सकेंगे ।
[33. कार्यवाहियों का बंद कमरे में होना और उन्हें मुद्रित या प्रकाशित न किया जाना-(1) इस अधिनियम के अधीन हर कार्यवाही बन्द कमरे में की जाएगी और किसी व्यक्ति के लिए ऐसी किसी कार्यवाही के सम्बन्ध में किसी बात को मुद्रित या प्रकाशित करना विधिपूर्ण नहीं होगा किन्तु उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय को छोड़कर जो उस न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा से मुद्रित या प्रकाशित किया गया है ।
(2) यदि कोई व्यक्ति उपधारा (1) के उपबंधों के उल्लंघन में कोई बात मुद्रित या प्रकाशित करेगा तो वह ऐसे जुर्माने से, जो जो एक हजार रुपए तक का हो सकेगा, दण्डनीय होगा ।]
34. डिक्रियां पारित करने में न्यायालय का कर्तव्य-(1) अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन की किसी कार्यवाही में, चाहे उसमें प्रतिरक्षा की गई हो या नहीं यदि न्यायालय का समाधान हो जाए कि-
(क) अनुतोष अनुदत्त करने के आधारों में से कोई आधार विद्यमान है; तथा
(ख) [जहां अर्जी धारा 27 की उपधारा (1) के खण्ड (क) में विनिर्दिष्ट आधार पर है वहां अर्जीदार उसमें निर्दिष्ट मैथुन कार्य में न तो किसी प्रकार उपसाधक रहा है, न उसकी उसमें मौनानुकूलता है और न उसने उसका उपमर्षण किया है] अथवा जहां अर्जी का आधार क्रूरता है वहां अर्जीदार ने क्रूरता का किसी तरह उपमर्षण नहीं किया है; तथा
(ग) जब विवाह-विच्छेद पारस्परिक सम्मति के आधार पर चाहा गया है तब ऐसी सम्मति बल, कपट या असम्यक् असर से अभिप्राप्त नहीं की गई है; तथा
(घ) अर्जी प्रत्यर्थी के साथ दुस्संधि करके पेश या अभियोजित नहीं की गई है; तथा
(ङ) कार्यवाही संस्थित करने में कोई अनावश्यक या अनुचित विलंब नहीं हुआ है; तथा
(च) अनुतोष अनुदत्त न करने के लिए कोई वैध आधार नहीं है,
तो और ऐसी दशा में न्यायालय तदनुसार ऐसा अनुतोष डिक्री करेगा, अन्यथा नहीं ।
(2) इस अधिनियम के अधीन कोई अनुतोष अनुदत्त करने के लिए अग्रसर होने के पूर्व न्यायालय का सबसे पहले यह कर्तव्य होगा कि वह प्रत्येक ऐसे मामले में, जिसमें मामले की प्रकृति और परिस्थितियों से संगत रूप से ऐसा करना संभव हो, पक्षकारों में पुनःमिलाप कराने के लिए प्रत्येक प्रयास करे :
[परन्तु इस धारा की कोई बात किसी ऐसी कार्यवाही को लागू नहीं होगी जिसमें धारा 27 की उपधारा (1) के खण्ड (ग), खण्ड (ङ), खण्ड (च), खण्ड (छ) और खण्ड (ज) में निर्दिष्ट आधारों में से किसी आधार पर अनुतोष चाहा गया है ।]
[(3) ऐसा मेल-मिलाप करने में न्यायालय की सहायता के प्रयोजन के लिए न्यायालय, यदि पक्षकार चाहे तो या यदि न्यायालय ऐसा करना न्यायसंगत और उचित समझे तो, कार्यवाहियों को पन्द्रह दिन से अनधिक की युक्तियुक्त कालावधि के लिए स्थगित कर सकेगा और उस मामले को पक्षकारों द्वारा इस निमित्त नामित किसी व्यक्ति को या यदि पक्षकार कोई व्यक्ति नामित करने में असफल रहते हैं तो न्यायालय द्वारा नामनिर्देशित किसी व्यक्ति को इन निदेशों के साथ निर्देशित कर सकेगा कि वह न्यायालय को इस बारे में रिपोर्ट दे कि मेल-मिलाप कराया जा सकता है या नहीं और करा दिया गया है या नहीं और न्यायालय कार्यवाही का निपटारा करने में ऐसी रिपोर्ट को सम्यक् रूप से ध्यान में रखेगा ।
(4) ऐसे प्रत्येक मामले में, जिसमें विवाह का विघटन विवाह-विच्छेद द्वारा होता है, डिक्री पारित करने वाला न्यायालय प्रत्येक पक्षकार को उसकी प्रति मुफ्त देगा ।]
[35. विवाह-विच्छेद और अन्य कार्यवाहियों में प्रत्यर्थी को अनुतोष-विवाह-विच्छेद या न्यायिक पृथक्करण या दाम्प्त्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिए किसी कार्यवाही में प्रत्यर्थी अर्जीदार के जारकर्म, क्रूरता या अभित्यजन के आधार पर चाहे गए अनुतोष का न केवल विरोध कर सकेगा बल्कि वह उस आधार पर इस अधिनियम के अधीन किसी अनुतोष के लिए प्रतिदावा भी कर सकेगा और यदि अर्जीदार का जारकर्म, क्रूरता या अभित्यजन साबित हो जाता है तो न्यायालय प्रत्यर्थी को इस अधिनियम के अधीन कोई ऐसा अनुतोष दे सकेगा जिसके लिए वह उस दशा में हकदार होता या होती जिसमें उसने उस आधार पर ऐसे अनुतोष की मांग करते हुए अर्जी पेश की होती ।]
36. वादकालीन निर्वाहिका-जहां अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन किसी कार्यवाही में जिला न्यायालय को यह प्रतीत हो कि पत्नी की कोई ऐसी स्वतंत्र आय नहीं है जो उसकी संभाल और उसके आवश्यक व्ययों के लिए पर्याप्त हो वहां यह पत्नी के आवेदन पर पति को आदेश दे सकेगा कि वह पत्नी को कार्यवाही में पड़ने वाले व्यय तथा कार्यवाही के दौरान ऐसी साप्ताहिक या मासिक राशि दे जो पति की आय को ध्यान में रखते हुए न्यायालय को उचित प्रतीत हो ।
[परन्तु कार्यवाही के व्ययों और अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन कार्यवाही के दौरान ऐसी साप्ताहिक या मासिक राशि के संदाय के लिए आवेदन को यथासंभव, पति पर सूचना की तामील की तारीख से, साठ दिन के भीतर निपटाया जाएगा ।]
37. स्थायी निर्वाहिका और भरणपोषण-(1) अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग कर रहा कोई न्यायालय डिक्री पारित करते समय या डिक्री के पश्चात् किसी समय, उस प्रयोजन के लिए अपने से आवेदन किए जाने पर यह आदेश कर सकेगा कि पति, पत्नी के भरणपोषण और संभाल के लिए, यदि आवश्यक हो तो पति की सम्पत्ति पर प्रभार द्वारा, ऐसी सकल राशि अथवा ऐसी मासिक या कालिक राशि पत्नी को जीवनकाल से अनधिक अवधि के लिए प्राप्त कराए जैसी स्वयं पत्नी की संपत्ति को, यदि कोई हो, उसके पति की संपत्ति और साम्थर्य को और [पक्षकारों के आचरण तथा मामले की अन्य परिस्थितियों कोट ध्यान में रखते हुए न्यायालय को न्यायसंगत प्रतीत हो ।
(2) यदि जिला न्यायालय का समाधान हो जाए उसके उपधारा (1) के अधीन आदेश करने के पश्चात् किसी समय पक्षकारों में से किसी की परिस्थितियों में तब्दीली हो गई हो तो वह किसी पक्षकार की प्रेरणा पर, ऐसी रीति से जो न्यायालय को न्यायसंगत प्रतीत हो, ऐसे किसी आदेश में फेरफार या उपान्तर कर सकेगा या उसे विखण्डित कर सकेगा ।
(3) यदि जिला न्यायालय का समाधान हो जाए, कि पत्नी से, जिसके पक्ष में इस धारा के अधीन आदेश दिया गया, पुनर्विवाह कर लिया है या सती जीवन नहीं बिता रही है 1[तो वह पति की प्रेरणा पर और ऐसी रीति में, जो न्यायालय न्यायसंगत समझे, ऐसे किसी आदेश को परिवर्तित, उपान्तरित का विखण्डित कर सकेगा ।]
38. संतान की अभिरक्षा-अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन की किसी कार्यवाही में जिला न्यायालय अवयस्क संतान की अभिरक्षा, भरणपोषण और शिक्षा के बारे में जहां संभव हो वहां उनकी इच्छा से संगत, समय-समय पर, ऐसे अन्तरिम आदेश पारित कर सकेगा और डिक्री में ऐसे उपबंध कर सकेगा जो उसे न्यायसंगत और उचित प्रतीत हों और डिक्री के पश्चात्, इस प्रयोजन के लिए अर्जी द्वारा किए गए आवेदन पर ऐसी संतान की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के बारे में, समय-समय पर, सब ऐसे आदेश और उपबंध कर सकेगा, प्रतिसंहृत कर सकेगा या निलम्बित कर सकेगा या उनमें फेरफार कर सकेगा जैसे यदि ऐसी डिक्री अभिप्राप्त करने के लिए कार्यवाही लम्बित होती तो ऐसी डिक्री या अंतरिम आदेशों द्वारा किए जा सकते ।
[परन्तु कार्यवाही के दौरान अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन अवयस्क संतान के भरण-पोषण और शिक्षा की बाबत आवेदन को यथासंभव, प्रत्यर्थी पर सूचना की तामील की तारीख से, साठ दिन के भीतर निपटाया जाएगा ।]
[39. डिक्रियों और आदेशों की अपीलें-(1) अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन किसी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा दी गई सभी डिक्रियां, उपधारा (3) के उपबंधों के अध्यधीन उसी प्रकार अपीलनीय होंगी जैसे उस न्यायालय द्वारा अपनी आरम्भिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में दी गई डिक्री अपीलनीय होती है और ऐसी अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें उस न्यायालय द्वारा अपनी आरम्भिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में किए गए विनिश्चयों की अपीलें सामान्यतः होती हैं ।
(2) इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा धारा 37 या धारा 38 के अधीन किए गए आदेश, उपधारा (3) के उपबंधों के अध्यधीन, तभी अपीलनीय होंगे जब वे अंतरिम आदेश हों और ऐसी प्रत्येक अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें उस न्यायालय द्वारा अपनी आरंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में किए गए विनिश्चयों की अपीलें सामान्यतः होती हैं ।
(3) केवल खर्चे के विषय में कोई अपील इस धारा के अधीन नहीं होगी ।
(4) इस धारा के अधीन प्रत्येक अपील डिक्री या आदेश की तारीख से [नब्बे दिन की कालावधि] के अंदर की जाएगी ।
39क. डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन-अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन किसी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा दी गई सभी डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन उसी प्रकार किया जाएगा जिस प्रकार उस न्यायालय द्वारा अपनी आरंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में दी गई डिक्रियों और आदेशों का तत्समय प्रवर्तन किया जाता है।]
40. 1908 के अधिनियम 5 का लागू होना-इस अधिनियम के अन्य उपबंधों के और ऐसे नियमों के, जो उच्च न्यायालय इस निमित्त बनाए, अध्यधीन रहते हुए, इस अधिनियम के अधीन सब कार्यवाहियां सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) से यथाशक्य नियमित होंगी ।
[40क. कुछ मामलों में अर्जियों को अन्तरित करने की शक्ति-(1) जहां-
(क) इस अधिनियम के अधीन कोई अर्जी अधिकारिता रखने वाले जिला न्यायालय में विवाह के किसी पक्षकार द्वारा धारा 23 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए या धारा 27 के अधीन विवाह-विच्छेद की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए पेश की गई है, और
(ख) उसके पश्चात् इस अधिनियम के अधीन कोई दूसरी अर्जी विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा किसी आधार पर धारा 23 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए या धारा 27 के अधीन विवाह-विच्छेद की डिक्री के लिए प्रार्थना करते हुए चाहे उसी जिला न्यायालय में अथवा उसी राज्य के या किसी भिन्न राज्य के किसी भिन्न जिला न्यायालय में पेश की गई है,
वहां ऐसी अर्जियों के संबंध में उपधारा (2) में विनिर्दिष्ट रीति से कार्यवाही की जाएगी ।
(2) ऐसे मामले में जिसे उपधारा (1) लागू होती है,-
(क) यदि ऐसी अर्जियां एक ही जिला न्यायालय में पेश की जाती हैं, तो दोनों अर्जियों का विचारण और उनकी सुनवाई उस जिला न्यायालय द्वारा एक साथ की जाएगी;
(ख) यदि ऐसी अर्जियां भिन्न-भिन्न जिला न्यायालयों में पेश की जाती हैं तो बाद वाली पेश की गई अर्जी उस जिला न्यायालय को अंतरित की जाएगी जिसमें पहले वाली अर्जी पेश की गई थी और दोनों अर्जियों की सुनवाई और उनका निपटारा उस जिला न्यायालय द्वारा एक साथ किया जाएगा जिसमें पहले वाली अर्जी पेश की गई थी ।
(3) ऐसे मामले में, जिसे उपधारा (2) का खंड (ख) लागू होता है, यथास्थिति, वह न्यायालय या सरकार, जो किसी वाद या कार्यवाही को उस जिला न्यायालय से, जिसमें बाद वाली अर्जी पेश की गई है, उस जिला न्यायालय को जिसमें पहले वाली अर्जी लंबित है, अंतरित करने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के अधीन सक्षम है, ऐसी बाद वाली अर्जी का अंतरण करने के लिए अपनी शक्तियों का वैसे ही प्रयोग करेगी मानो वह उक्त संहिता के अधीन ऐसा करने के लिए सशक्त की गई है ।
40ख. इस अधिनियम के अधीन दी जाने वाली अर्जियों के विचारण और निपटारे के संबंध में उपबन्ध-(1) इस अधिनियम के अधीन अर्जी का विचारण, जहां तक कि न्याय के हित में संगत रहते हुए, उस विचारण के बारे में, साध्य हो दिन प्रतिदिन तब तक निरंतर चालू रहेगा जब तक कि वह समाप्त न हो जाए किन्तु उस दशा में नहीं जिसमें न्यायालय विचारण का अगले दिन से परे के लिए स्थान करना उन कारणों से आवश्यक समझे जो लेखबद्ध किए जाएंगे ।
(2) इस अधिनियम के अधीन प्रत्येक अर्जी का विचारण जहां तक सम्भव हो शीघ्र किया जाएगा और प्रत्यर्थी पर अर्जी की सूचना की तामील होने की तारीख से छह मास के अंदर विचारण समाप्त करने का प्रयास किया जाएगा ।
(3) इस अधिनियम के अधीन प्रत्येक अपील की सुनवाई जहां तक संभव हो शीघ्र की जाएगी और प्रत्यर्थी पर अपील की सूचना की तामील होने की तारीख से तीन मास के अंदर सुनवाई समाप्त करने का प्रयास किया जाएगा ।
40ग. दस्तावेजी साक्ष्य-किसी अधिनियम में किसी प्रतिकूल बात के होते हुए भी यह है कि इस अधिनियम के अधीन अर्जी के विचारण की किसी कार्यवाही में कोई दस्तावेज साक्ष्य में इस आधार पर अग्रह्य नहीं होगी कि वह सम्यक् रूप से स्टांपित या रजिस्ट्रीकृत नहीं है ।]
41. प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियम बनाने की उच्च न्यायालय की शक्ति-(1) उच्च न्यायालय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) और इस अधिनियम के उपबंधों से संगत ऐसे नियम, शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, बनाएगा जो वह अध्याय 5, 6 और 7 के उपबंधों को क्रियान्वित करने के प्रयोजन के लिए समीचीन समझे ।
(2) विशिष्टतः और पूर्वगागी उपबंध की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियम निम्नलिखित के लिए उपबंध करेंगे,-
(क) जारकर्म के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी में जारकर्मी को भी सहप्रत्यर्थी के रूप में वाद का पक्षकार बनाना और वे परिस्थितियां जिनमें अर्जीदार ऐसा करने से अभिमुक्त किया जा सकेगा;
(ख) ऐसे किसी सहप्रत्यर्थी के विरुद्ध नुकसानी अधिनिर्णीत करना;
(ग) अध्याय 5 या अध्याय 6 के अधीन की किसी कार्यवाही में, उसके पहले से ही पक्षकार न होने वाले किसी व्यक्ति द्वारा मध्यक्षेप;
(घ) विवाह की अकृतता के लिए या विवाह-विच्छेद के लिए अर्जी का प्ररूप और अंतर्वस्तु तथा ऐसी अर्जियों के पक्षकारों द्वारा उपगत खर्चों का दिया जाना; तथा
(ङ) कोई अन्य ऐसा विषय जिसके लिए इस अधिनियम में कोई उपबंध या पर्याप्त उपबंध नहीं किया गया है और जिसके लिए भारतीय विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1869 (1869 का 4) में उपबंध किया गया है ।
अध्याय 8
प्रकीर्ण
42. व्यावृत्ति-इस अधिनियम की कोई बात किसी ऐसे विवाह की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेगी जो इसके उपबंधों के अधीन अनुष्ठापित न किया गया हो; और न इस अधिनियम के बारे में यह समझा जाएगा कि वह विवाह करने के किसी ढंग की विधिमान्यता पर प्रत्यक्षतः या परोक्षतः प्रभाव डालती है ।
43. विवाहित व्यक्ति के इस अधिनियम के अधीन पुनः विवाह करने के लिए शास्ति-अध्याय 3 में अन्यथा उपबंधित के सिवाय, प्रत्येक ऐसे व्यक्ति के बारे में, जो उस समय विवाहित होने पर भी इस अधिनियम के अधीन अपना विवाह अनुष्ठापित कराएगा, यह समझा जाएगा कि उसने भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की, यथास्थिति, धारा 494 या धारा 495 के अधीन अपराध किया है, और ऐसे अनुष्ठापित विवाह शून्य होगा ।
44. द्विविवाह के लिए दंड-प्रत्येक व्यक्ति जिसका विवाह इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित हुआ हो और जो पति या पत्नी के जीवनकाल में दूसरा विवाह करेगा, पति या पत्नी के जीवनकाल में पुनः विवाह करने के अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 494 और धारा 495 में उपबंधित शास्तियों का भागी होगा और ऐसे किया गया विवाह शून्य होगा ।
45. मिथ्या घोषणा या प्रमाणपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए शास्ति-प्रत्येक व्यक्ति, जो इस अधिनियम के अधीन या उसके द्वारा अपेक्षित कोई ऐसी घोषणा करे या प्रमाणपत्र बनाए, या ऐसी घोषणा या प्रमाणपत्र हस्ताक्षरित करे या अनुप्रमाणित करे जिसमें ऐसा कथन हो जो मिथ्या हो और या तो जिसके बारे में वह जानता हो या विश्वास करता हो कि वह मिथ्या है या जिसके सत्य होने का उसे विश्वास न हो, भारतीय दंण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 199 में वर्णित अपराध का दोषी होगा ।
46. विवाह अधिकारी के दोषपूर्ण कार्य के लिए शास्ति-कोई विवाह अधिकारी जो इस अधिनियम के अधीन विवाह का अनुष्ठापन :-
(1) उस विवाह के बारे में धारा 5 द्वारा अपेक्षित सूचना प्रकाशित किए बिना; अथवा
(2) ऐसे विवाह की सूचना के प्रकाशन की तारीख से तीस दिन के भीतर, अथवा
(3) इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध के उल्लंघन में,
जानते हुए और जानबूझकर करेगा वह सादे कारावास से, जो एक वर्ष तक का हो सकेगा, या जुर्माने से, जो पांच सौ रुपए तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डनीय होगा ।
47. विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक का निरीक्षण के लिए उपलब्ध रहना-(1) इस अधिनियम के अधीन रखी जाने वाली विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक सभी उचित समयों पर निरीक्षण के लिए उपलब्ध रहेगी और उसमें अंतर्विष्ट कथनों के साक्ष्य के रूप में ग्राह्य होगी ।
(2) विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक में से प्रमाणित उद्धरण विवाह अधिकारी, आवेदन किए जाने पर और आवेदक द्वारा विहित फीस दिए जाने पर उसे देगा ।
48. विवाह अभिलेखों की प्रविष्टियों की प्रतिलिपियों का भेजा जाना-राज्य का प्रत्येक विवाह अधिकारी उस राज्य के जन्म, मृत्यु और विवाह के महारजिस्ट्रार को, ऐसे अंतरालों पर और ऐसे प्ररूप में, जो विहित किए जाएं, उन सब प्रविष्टियों की सही प्रतिलिपि भेजेगा जो उसने ऐसे अंतिम अंतराल के बाद विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक में की हों और उन राज्यक्षेत्रों से बाहर के, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, विवाह अधिकारियों की दशा में सही प्रतिलिपि ऐसे प्राधिकारी को भेजी जाएगी जैसा केंद्रीय सरकार इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे ।
49. गलतियों का ठीक किया जाना-(1) कोई विवाह अधिकारी, जो विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक की किसी प्रविष्टि के प्ररूप या सार में किसी गलती का पता चलाए, उस गलती का पता चलने के पश्चात् एक मास के भीतर उन विवाहित व्यक्तियों के समक्ष या उनकी मृत्यु या उनके अनुपस्थित होने की दशा में दो अन्य विश्वसनीय साक्षियों के समक्ष, उस गलती के पार्श्व में प्रविष्टि करके और मूल प्रविष्टि में परिवर्तन किए बिना, उसे ठीक कर सकेगा और पार्श्व प्रविष्टि पर हस्ताक्षर करेगा और उसमें ऐसे ठीक करने की तारीख जोड़ेगा और विवाह अधिकारी उसके प्रमाणपत्र में भी वैसी ही पार्श्व प्रविष्टि करेगा ।
(2) इस धारा के अधीन गलती ठीक करने की प्रविष्टि उन साक्षियों द्वारा, जिनके समक्ष वह की गई हो, अनुप्रमाणित की जाएगी ।
(3) जहां प्रविष्टि की प्रतिलिपि धारा 48 के अधीन महारजिस्ट्रार या अन्य प्राधिकारी को पहले ही भेज दी गई हों वहां विवाह अधिकारी मूल गलत प्रविष्टि और उसकी पार्श्विक शुद्धियों का वैसी ही रीति से पृथक् प्रमाणपत्र बनाएगा और भेजेगा ।
50. नियम बनाने की शक्ति-(1) केंद्रीय सरकार *** अधिकारियों की दशा में केंद्रीय सरकार और सब अन्य दशाओं में राज्य सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम , शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा बना सकेगी ।
(2) विशिष्टतः और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियम निम्नलिखित विषयों के लिए या उनमें से किसी के लिए उपबंध कर सकेंगे, अर्थात् :-
(क) विवाह अधिकारियों के कर्तव्य और उनकी शक्तियां और वे क्षेत्र जिनमें वे अधिकारिता का प्रयोग कर सकेंगे;
(ख) वह रीति जिससे विवाह अधिकारी इस अधिनियम के अधीन जांच कर सकेगा और उसके लिए प्रक्रिया;
(ग) वह प्ररूप जिसमें और वह रीति जिसमें इस अधिनियम द्वारा या उसके अधीन अपेक्षित पुस्तकें रखी जाएंगी;
(घ) वे फीसें जो विवाह अधिकारी पर इस अधिनियम के अधीन अधिरोपित किसी कर्तव्य के पालन के लिए उद्गृहीत की जा सकेंगी;
(ङ) वह रीति जिससे धारा 16 के अधीन लोक सूचना दी जाएगी;
(च) वह रीति जिससे और वे अंतराल जिनके भीतर विवाह-प्रमाणपत्र पुस्तक की प्रविष्टियों की प्रतिलिपियां धारा 48 के अनुसरण में भेजी जाएंगी;
(छ) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाए या जिसका विहित किया जाना अपेक्षित हो ।
[(3) इस अधिनियम के अधीन केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाया गया प्रत्येक नियम बनाए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष, जब वह सत्र में हो, कुल तीस दिन की अवधि के लिए रखा जाएगा । यह अवधि एक सत्र में अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी हो सकेगी । यदि उस सत्र के या पूर्वोक्त आनुक्रमिक सत्रों के ठीक बाद के सत्र के अवसान के पूर्व दोनों सदन उस नियम में कोई परिवर्तन करने के लिए सहमत हो जाएं तो तत्पश्चात् वह ऐसे परिवर्तित रूप में ही प्रभावी होगा । यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत हो जाएं कि वह नियम नहीं बनाया जाना चाहिए तो तत्पश्चात् वह निष्प्रभाव हो जाएगा । किन्तु नियम के ऐसे परिवर्तित या निष्प्रभाव होने से उसके अधीन पहले की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा ।
(4) इस अधिनियम के अधीन राज्य सरकार द्वारा बनाया गया प्रत्येक नियम, बनाए जाने पर, यथाशीघ्र, राज्य विधान-मण्डल के समक्ष रखा जाएगा ।]
51. निरसन और व्यावृतियां-(1) विशेष विवाह अधिनियम, 1872 (1872 का 3) को और विशेष विवाह अधिनियम, 1872 की किसी तत्स्थानी विधि को जो, इस अधिनियम के प्रारम्भ के ठीक पहले किसी भाग ख राज्य में प्रवृत्त हो, एतद्द्वारा निरसित किया जाता है ।
(2) ऐसे निरसन के होते हुए भी,-
(क) विशेष विवाह अधिनियम, 1872 (1872 का 3) या ऐसी किसी तत्स्थानी विधि के अधीन सम्यक् रूप से अनुष्ठापित सब विवाह इस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित समझे जाएंगे;
(ख) वैवाहिक मामलों और विषयों के सब वाद और कार्यवाहियां जो इस अधिनियम के प्रवर्तन में आने के समय किसी न्यायालय में लंबित हों उस न्यायालय द्वारा यावत्शक्य ऐसे निपटाई या विनिश्चत की जाएंगी मानो वे मूलतः उसमें ही इस अधिनियम के अधीन संस्थित की गई हों ।
(3) उपधारा (2) के उपबंध साधारण खंड अधिनियम, 1897 (1897 का 10) की धारा 6 के उपबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालेंगे और उक्त धारा 6 के उपबंध तत्स्थानीय विधि के निरसन को भी ऐसे ही लागू होंगे मानो वह तत्स्थानी विधि अधिनियमिति हो ।
प्रथम अनुसूची
[धारा 2(ख) देखिए]
प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी
भाग 1
1. माता
2. पिता की विधवा (सौतेली माता)
3. माता की माता
4. माता के पिता की विधवा (सौतेली नानी)
5. माता की माता की माता
6. माता की माता के पिता की विधवा (सौतेली परनानी)
7. माता के पिता की माता
8. माता के पिता के पिता की विधवा (सौतेली परनानी)
9. पिता की माता
10. पिता के पिता की विधवा (सौतेली दादी)
11. पिता की माता की माता
12. पिता की माता के पिता की विधवा (सौतेली परनानी)
13. पिता के पिता की माता
14. पिता के पिता के पिता की विधवा (परदादी)
15. पुत्री
16. पुत्र की विधवा
17. पुत्री की पुत्री
18. पुत्री के पुत्र की विधवा
19. पुत्र की पुत्री
20. पुत्र के पुत्र की विधवा
21. पुत्री की पुत्री की पुत्री
22. पुत्री की पुत्री के पुत्र की विधवा
23. पुत्री के पुत्र की पुत्री
24. पुत्री के पुत्र के पुत्र की विधवा
25. पुत्र की पुत्री की पुत्री
26. पुत्र की पुत्री के पुत्र की विधवा
27. पुत्र के पुत्र की पुत्री
28. पुत्र के पुत्र के पुत्र की विधवा
29. बहिन
30. बहिन की पुत्री
31. भाई की पुत्री
32. माता की बहिन
33. पिता की बहिन
34. पिता के भाई की पुत्री
35. पिता की बहिन की पुत्री
36. माता की बहिन की पुत्री
37. माता के भाई की पुत्री
स्पष्टीकरण-इस भाग के प्रयोजनों के लिए “विधवा" पद के अन्तर्गत विच्छिन्न-विवाह पत्नी भी है ।
भाग 2
1. पिता
2. माता का पति (सौतेला पिता)
3. पिता का पिता
4. पिता की माता का पति (सौतेला दादा)
5. पिता के पिता का पिता
6. पिता के पिता की माता का पति (सौतेला परदादा)
7. पिता की माता का पिता
8. पिता की माता की माता का पति (सौतेला परदादा)
9. माता का पिता
10. माता की माता का पति (सौतेला नाना)
11. माता के पिता का पिता
12. माता के पिता की माता का पति (सौतेला परनाना)
13. माता की माता का पिता
14. माता की माता की माता का पति (सौतेला परनाना)
15. पुत्र
16. पुत्री का पति
17. पुत्र का पुत्र
18. पुत्र की पुत्री का पति
19. पुत्री का पुत्र
20. पुत्री की पुत्री का पति
21. पुत्र के पुत्र का पुत्र
22. पुत्र के पुत्र की पुत्री का पति
23. पुत्र की पुत्री का पुत्र
24. पुत्र की पुत्री की पुत्री का पति
25. पुत्री के पुत्र का पुत्र
26. पुत्री के पुत्र की पुत्री का पति
27. पुत्री की पुत्री का पुत्र
28. पुत्री की पुत्री की पुत्री का पति
29. भाई
30. भाई का पुत्र
31. बहिन का पुत्र
32. माता का भाई
33. पिता का भाई
34. पिता के भाई का पुत्र
35. पिता की बहिन का पुत्र
36. माता की बहिन का पुत्र
37. माता के भाई का पुत्र
स्पष्टीकरण-इस भाग के प्रयोजनों के लिए “पति" पद के अन्तर्गत विच्छिन्न-विवाह पति भी है ।
द्वितीय अनुसूची
आशयित विवाह की सूचना
(धारा 5 देखिए)
_____________________जिला के विवाह अधिकारी ।
हम एतद्द्वारा आपको सूचना देते हैं कि इसकी तारीख से तीन कलेंडर मास के भीतर हम दोनों का परस्पर विवाह विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के अधीन अनुष्ठापित होना आशयित है ।
नाम |
स्थिति |
उपजीविका |
आयु |
रहने का स्थान |
यदि रहने का वर्तमान स्थान स्थायी न हो तो रहने का स्थायी स्थान |
निवास की अवधि |
क.ख |
अविवाहित विधुर विच्छिन्न-विवाह |
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|
|
ग.घ |
अविवाहित विधवा विच्छिन्न-विवाह |
|
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|
|
आज सन् 19______के ______ मास के____________ दिन हमने हस्ताक्षर किए ।
(हस्ताक्षर) क. ख
(हस्ताक्षर) ग. घ
तृतीय अनुसूची
(धारा 11 देखिए)
वर द्वारा की जाने वाली घोषणा
मैं क.ख. एतद्द्वारा निम्नलिखित घोषणा करता हूं :-
1. मैं इस समय अविवाहित (या, यथास्थिति, विधुर या विच्छिन्न-विवाह) हूं ।
2. मैने .......................वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है ।
3. मेरी ग. घ. (वधु) से प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी नहीं है ।
4. मैं यह जानता हूं कि यदि इस घोषणा में कोई कथन मिथ्या हुआ और यदि ऐसा कथन करते समय यह जानता होऊं या विश्वास करता होऊं कि वह मिथ्या है या उसके सत्य होने का मुझे विश्वास न हो तो मैं कारावास से और जुर्माने से भी दंडनीय होऊंगा ।
(हस्ताक्षर) क. ख. (वर)
वधु द्वारा की जाने वाली घोषणा
मैं ग. घ., एतद्द्वारा निम्नलिखित घोषणा करती हूं :-
1. इस समय अविवाहित (या, यथास्थिति, विधवा या विच्छिन्न-विवाह) हूं ।
2. मैने .......................वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है ।
3. मेरी क. ख. (वर) से प्रतिषिद्ध कोटि की नातेदारी नहीं है ।
4. मैं यह जानती हूं कि यदि इस घोषणा में कोई कथन मिथ्या हुआ, और यदि ऐसा कथन करते समय यह जानती होऊं या विश्वास करती होऊं कि वह मिथ्या है या उसके सत्य होने का मुझे विश्वास न हो तो मैं कारावास से और जुर्माने से भी दंडनीय होऊंगी ।
(हस्ताक्षर) ग. घ. (वधु)
ऊपरिनामित क.ख. और ग.घ. द्वारा हमारी उपस्थिति में हस्ताक्षर किए गए । जहां तक हम जानते हैं इस विवाह में कोई विधिपूर्ण बाधा नहीं है ।
(हस्ताक्षर) छ.ज |
तीन साक्षी
|
(हस्ताक्षर) झ.ञ |
(हस्ताक्षर) ट.ठ
प्रतिहस्ताक्षरित ङ. च.
विवाह अधिकारी
तारीख 19_________के ________ मास का_____________दिन
चतुर्थ अनुसूची
(धारा 13 देखिए)
विवाह का प्रमाणपत्र
मैं, ङ. च, एतद्द्वारा प्रमाणित करता हूं कि 2000..............................के..........................मास के..................दिन क.ख. और ग.घ. मेरे समक्ष हाजिर हुए और उनमें से प्रत्येक ने मेरी उपस्थिति में और उन तीन साक्षियों की उपस्थिति में, जिन्होंने इसमें नीचे हस्ताक्षर किए हैं, धारा 11 द्वारा अपेक्षित घोषणाएं कीं और उनका परस्पर विवाह इस अधिनियम के अधीन मेरी उपस्थिति में अनुष्ठापित किया गया ।
(हस्ताक्षर) ङ. च.
..........का विवाह अधिकारी
(हस्ताक्षर) क. ख.
वर
(हस्ताक्षर) ग. घ.
वधु
(हस्ताक्षर) छ.ज |
तीन साक्षी
|
(हस्ताक्षर) झ.ञ |
(हस्ताक्षर) ट.ठ.
तारीख 19______के ______ मास का____________ दिन ।
पंचम अनुसूची
(धारा 16 देखिए)
अन्य रूपों में अनुष्ठापित विवाह का प्रमाणपत्र
मैं, ङ.च, एतद्द्वारा प्रमाणित करता हूं कि क. ख. और ग. घ।.19.......................के.......................... मास के..................दिन मेरे समक्ष हाजिर हुए और उनमें से प्रत्येक ने मेरी उपस्थिति में जिन्होंने इसमें नीचे हस्ताक्षर किए हैं घोषणा की कि उनका परस्पर विवाह हो चुका है और वे अपने विवाह के समय से पति और पत्नी के रूप में साथ रह रहे हैं और इस अधिनियम के अधीन अपना विवाह रजिस्ट्रीकृत कराने की उनकी इच्छा के अनुसार उक्त विवाह आजह्लह्लह्लह्ल19....................के....................मास के......................दिन इस अधिनियम के अधीन रजिस्ट्रीकृत किया गया है और ....................से प्रभावी है ।
(हस्ताक्षर) ङ. च.
..........का विवाह अधिकारी
(हस्ताक्षर) क. ख.
पति
(हस्ताक्षर) ग. घ.
पत्नी
(हस्ताक्षर) छ.ज |
तीन साक्षी
|
(हस्ताक्षर) झ.ञ |
(हस्ताक्षर) ट.ठ.
तारीख 2000.......................के ....................... मास का..............................................दिन ।
______