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कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम, 1984 ( Family Courts Act, 1984 )


 

कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम, 1984

(1984 का अधिनियम संख्यांक 66)

[14 सितम्बर, 1984]

विवाह और कौटुम्बिक बातों से संबंधित विवादों में सुलह कराने

और उनका शीघ्र निपटारा सुनिश्चित करने की दृष्टि

से कुटुम्ब न्यायालय स्थापित करने का और

उससे संबंधित विषयों का उपबन्ध

करने के लिए

अधिनियम

                भारत गणराज्य के पैंतीसवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :-

अध्याय 1

प्रारंभिक

1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ-(1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम कुटुम्ब न्यायालय अधिनियम, 1984 है ।

(2) इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर है ।

(3) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा, जो केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करे और भिन्न-भिन्न राज्यों के लिए भिन्न-भिन्न तारीखें नियत की जा सकेंगी ।

2. परिभाषाएं-इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,-

                (क) न्यायाधीश" से कुटुम्ब न्यायालय का, यथास्थिति, न्यायाधीश, प्रधान न्यायाधीश, अपर प्रधान न्यायाधीश या अन्य न्यायाधीश अभिप्रेत है ;

(ख) अधिसूचना" से राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना अभिप्रेत है ;

(ग) विहित" से इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है ;

(घ) कुटुम्ब न्यायालय" से धारा 3 के अधीन स्थापित कुटुम्ब न्यायालय अभिप्रेत है ;

                (ङ) ऐसे अन्य सभी शब्दों और पदों के, जो इस अधिनियम में प्रयुक्त हैं किन्तु परिभाषित नहीं हैं और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) में परिभाषित हैं, वही अर्थ होंगे जो उस संहिता में हैं ।

अध्याय 2

कुटुम्ब न्यायालय

3. कुटुम्ब न्यायालयों की स्थापना-(1) इस अधिनियम द्वारा किसी कुटुम्ब न्यायालय को प्रदत्त अधिकारिता और शक्तियों का प्रयोग करने के प्रयोजन के लिए, राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करने के पश्चात् और अधिसूचना द्वारा,-

(क) इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् यथाशीघ्र, राज्य में किसी नगर या कस्बे के ऐसे प्रत्येक क्षेत्र के लिए, जिसकी जनसंख्या दस लाख से अधिक है, कुटुम्ब न्यायालय स्थापित करेगी ;

(ख) राज्य में ऐसे अन्य क्षेत्रों के लिए, जिन्हें वह आवश्यक समझे, कुटुम्ब न्यायालय स्थापित कर सकेगी ।

(2) राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करने के पश्चात्, अधिसूचना द्वारा, उस क्षेत्र की स्थानीय परिसीमाएं विनिर्दिष्ट करेगी जिस तक किसी कुटुम्ब न्यायालय की अधिकारिता का विस्तार होगा और ऐसी परिसीमाओं को किसी भी समय बढ़ा, घटा या परिवर्तित कर सकेगी ।

4. न्यायाधीशों की नियुक्ति-(1) राज्य सरकार, उच्च न्यायालय की सहमति से, एक या अधिक व्यक्तियों को कुटुम्ब न्यायालय के न्यायाधीश या न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त कर सकेगी ।

(2) जब कोई कुटुम्ब न्यायालय एक से अधिक न्यायाधीशों से मिल कर बनता है, तब-

                (क) प्रत्येक न्यायाधीश, इस अधिनियम या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा न्यायालय को प्रदत्त सभी या किन्हीं शक्तियों का प्रयोग कर सकेगा ;

                (ख) राज्य सरकार, उच्च न्यायालय की सहमति से, किसी भी न्यायाधीश को प्रधान न्यायाधीश और किसी अन्य न्यायाधीश को अपर प्रधान न्यायाधीश नियुक्त कर सकेगी ;

                (ग) प्रधान न्यायाधीश, न्यायालय के विभिन्न न्यायाधीशों के बीच न्यायालय के कारबार के वितरण के लिए   समय-समय पर ऐसे इंतजाम कर सकेगा जा वह ठीक समझे ;

                (घ) अपर प्रधान न्यायाधीश, प्रधान न्यायाधीश का पद रिक्त होने की दशा में या जब प्रधान न्यायाधीश अनुपस्थिति, बीमारी या किसी अन्य कारण से अपने कृत्यों का निर्वहन करने में असमर्थ है तब प्रधान न्यायाधीश की शक्तियों का प्रयोग कर सकेगा ।

(3) कोई व्यक्ति, न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए तभी अर्हित होगा जब-

(क) वह भारत में कोई न्यायिक पद या किसी अधिकरण के सदस्य का पद अथवा संघ या राज्य के अधीन ऐसा कोई पद कम से कम सात वर्ष तक धारण कर चुका हो जिसके लिए विधि का विशेष ज्ञान अपेक्षित है ; या

                (ख) वह किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का लगातार कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो ; या

() उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएं हों, जो केन्द्रीय सरकार, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति की सहमति से, विहित करे

(4) न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के लिए व्यक्तियों का चयन करते समय-

(क) यह सुनिश्चित करने का भरसक प्रयास किया जाएगा कि उन व्यक्तियों का ही चयन किया जाए जो विवाह-संस्था की संरक्षा करने और उसे बनाए रखने तथा बालकों के कल्याण की अभिवृद्धि के लिए प्रतिबद्ध हैं और जो सुलह और परामर्श द्वारा विवादों का निपटारा कराने के अपने अनुभव और विशेषज्ञता के कारण अर्हित हैं ; और

                (ख) महिलाओं को अधिमानता दी जाएगी ।

(5) कोई व्यक्ति, बासठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने के पश्चात्, कुटुम्ब न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त नहीं किया जाएगा और न्यायाधीश का पद धारण नहीं करेगा ।

(6) किसी न्यायाधीश को संदेय वेतन या मानदेय और अन्य भत्ते तथा उसकी सेवा के अन्य निबंधन और शर्तें ऐसी होंगी जो राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करके विहित करे ।

5. समाज कल्याण अभिकरणों आदि का सहयोजन-राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करके, ऐसी रीति से और ऐसे प्रयोजनों के लिए और ऐसी शर्तों के अधीन रहते हुए, जो नियमों द्वारा विनिर्दिष्ट की जाएं, कुटुम्ब न्यायालय के साथ निम्नलिखित के सहयोजन के लिए, नियमों द्वारा, उपबन्ध कर सकेगी-

                (क) समाज कल्याण में लगी हुई संस्थाएं या संगठन या उनके प्रतिनिधि ;

                (ख) कुटुम्ब के कल्याण की अभिवृद्धि में वृत्तिक तौर पर लगे हुए व्यक्ति ;

                (ग) समाज कल्याण के क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति ; और

                (घ) ऐसा कोई अन्य व्यक्ति जिसके किसी कुटुम्ब न्यायालय के साथ सहयोजन से कुटुम्ब न्यायालय अपनी अधिकारिता का इस अधिनियम के प्रयोजनों के अनुसार अधिक प्रभावी रूप से प्रयोग कर सकेगा ।

6. कुटुम्ब न्यायालयों के परामर्शदाता, अधिकारी और अन्य कर्मचारी-(1) राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करके, कुटुम्ब न्यायालय के कृत्यों के निर्वहन में उसकी सहायता करने के लिए अपेक्षित परामर्शदाताओं, अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों की संख्या और प्रवर्गों का अवधारण करेगी और कुटुम्ब न्यायालय के लिए ऐसे परामर्शदाताओं, अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों की व्यवस्था करेगी, जो वह ठीक समझे ।

(2) उपधारा (1) में निर्दिष्ट परामर्शदाताओं के सहयोजन के निबंधन और शर्तें तथा अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों की सेवा के निबंधन और शर्तें ऐसी होंगी जो राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों द्वारा विनिर्दिष्ट की जाएं ।

अध्याय 3

अधिकारिता

7. अधिकारिता-(1) इस अधिनियम के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए,-

                (क) कुटुम्ब न्यायालय को, स्पष्टीकरण में निर्दिष्ट प्रकृति के वादों और कार्यवाहियों की बाबत, तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन किसी जिला न्यायालय या किसी अधीनस्थ सिविल न्यायालय द्वारा प्रयोक्तव्य पूर्ण अधिकारिता होगी और वह उसका प्रयोग करेगा ;

(ख) कुटुम्ब न्यायालय के बारे में, ऐसी विधि के अधीन ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने के प्रयोजनों के लिए, यह समझा जाएगा कि वह ऐसे क्षेत्र के लिए, जिस पर कुटुम्ब न्यायालय की अधिकारिता का विस्तार है, यथास्थिति, जिला न्यायालय या अधीनस्थ सिविल न्यायालय है ।

स्पष्टीकरण-इस उपधारा में निर्दिष्ट वाद और कार्यवाहियां निम्नलिखित प्रकृति के वाद और कार्यवाहियां हैं, अर्थात् :-

(क) किसी विवाह के पक्षकारों के बीच (विवाह को, यथास्थिति, अकृत और शून्य घोषित करने के लिए या विवाह को बातिल करने के लिए) विवाह की अकृतता या दाम्पत्य अधिकारों के प्रत्यास्थापन या न्यायिक पृथक्करण या विवाह के विघटन की डिक्री के लिए कोई वाद या कार्यवाही ;

(ख) किसी व्यक्ति के विवाह की विधिमान्यता के बारे में या उसकी वैवाहिक प्रास्थिति के बारे में घोषणा के लिए कोई वाद या कार्यवाही ;

(ग) किसी विवाह के पक्षकारों के बीच ऐसे पक्षकारों की या उनमें से किसी की सम्पत्ति की बाबत कोई विवाद या कार्यवाही ;

(घ) किसी वैवाहिक संबंध से उत्पन्न परिस्थितियों में किसी आदेश या व्यादेश के लिए कोई वाद या कार्यवाही ;

(ङ) किसी व्यक्ति के धर्मजत्व के बारे में किसी घोषणा के लिए कोई वाद या कार्यवाही ;

(च) भरणपोषण के लिए कोई वाद या कार्यवाही ;

(छ) किसी व्यक्ति की संरक्षकता अथवा किसी अवयस्क की अभिरक्षा या उस तक पहुंच के संबंध में कोई वाद या कार्यवाही ।

(2) इस अधिनियम के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी कुटुम्ब न्यायालय को-

(क) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन (जो पत्नी, संतान और मात-पिता के भरणपोषण के लिए आदेश के संबंध में है) किसी प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट द्वारा प्रयोक्तव्य अधिकारिता ; और

(ख) ऐसी अन्य अधिकारिता, जो किसी अन्य अधिनियमिति द्वारा उसको प्रदत्त की जाए,

भी होगी और वह उसका प्रयोग करेगा ।

8. अधिकारिता का अपवर्जन और लंबित कार्यवाहियां-जहां कोई कुटुम्ब न्यायालय किसी क्षेत्र के लिए स्थापित किया गया  है वहां-

                (क) धारा 7 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी जिला न्यायालय या अधीनस्थ सिविल न्यायालय को, ऐसे क्षेत्र के संबंध में, उस उपधारा के स्पष्टीकरण में निर्दिष्ट प्रकृति के किसी वाद या कार्यवाही की बाबत कोई अधिकारिता नहीं होगी या वह उसका प्रयोग नहीं करेगा ;

                (ख) किसी मजिस्ट्रेट को, ऐसे क्षेत्र के संबंध में, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन कोई अधिकारिता या शक्तियां नहीं होंगी या वह उनका प्रयोग नहीं करेगा ;

                (ग) धारा 7 की उपधारा (1) के स्पष्टीकरण में निर्दिष्ट प्रकृति के प्रत्येक ऐसे वाद या कार्यवाही का और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन प्रत्येक ऐसी कार्यवाही का-

(i) जो ऐसे कुटुम्ब न्यायालय की स्थापना से ठीक पहले, यथास्थिति, उस उपधारा में निर्दिष्ट किसी जिला न्यायालय या अधीनस्थ सिविल न्यायालय के समक्ष अथवा उक्त संहिता के अधीन किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित है ; और

(ii) जो ऐसे कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष या उसके द्वारा की जानी या संस्थित की जानी अपेक्षित होती यदि ऐसी तारीख से, जिसको ऐसा वाद या कार्यवाही की गई थी या संस्थित की गई थी, पहले यह अधिनियम प्रवृत्त हो गया होता और ऐसा कुटुम्ब न्यायालय स्थापित हो गया होता,

ऐसे कुटुम्ब न्यायालय को ऐसी तारीख को अंतरण हो जाएगा, जिसको वह स्थापित किया जाता है ।

अध्याय 4

प्रक्रिया

9. समझौता कराने के लिए प्रयत्न करने का न्यायालय का कर्तव्य-(1) जहां मामले की प्रकृति और परिस्थितियों के अनुसार ऐसा करना संभव है वहां प्रत्येक वाद या कार्यवाही में कुटुम्ब न्यायालय सर्वप्रथम यह प्रयास करेगा कि वाद या कार्यवाही की विषय-वस्तु की बाबत किसी समझौते पर पहुंचने के लिए पक्षकारों की सहायता की जाए या उन्हें मनाया जाए और इस प्रयोजन के लिए कुटुम्ब न्यायालय, उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए किन्हीं नियमों के अधीन रहते हुए, ऐसी प्रक्रिया का अनुसरण कर सकेगा जो वह ठीक समझे ।

(2) यदि किसी वाद या कार्यवाही के किसी प्रक्रम पर कुटुम्ब न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पक्षकारों के बीच समझौते की युक्तियुक्त संभावना है, तो कुटुम्ब न्यायालय कार्यवाहियों को ऐसी अवधि के लिए, जो वह ठीक समझे, स्थगित कर सकेगा जिससे कि ऐसा समझौता कराने के लिए प्रयत्न किए जा सकें ।

(3) उपधारा (2) द्वारा प्रदत्त शक्ति, कार्यवाहियों को स्थगित करने की कुटुम्ब न्यायालय की किसी अन्य शक्ति के अतिरिक्त होगी न कि उसके अल्पीकरण में ।

10. साधारणतः प्रक्रिया-(1) इस अधिनियम के अन्य उपबंधों और नियमों के अधीन रहते हुए, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) और तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के उपबंध किसी कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष वादों और [दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन कार्यवाहियों से भिन्न] कार्यवाहियों को लागू होंगे और संहिता के उक्त उपबंधों के प्रयोजनों के लिए कुटुम्ब न्यायालय को सिविल न्यायालय समझा जाएगा और उसे ऐसे न्यायालय की सभी शक्तियां होंगी ।

(2) इस अधिनियम के अन्य उपबंधों और नियमों के अधीन रहते हुए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) या उसके अधीन बनाए गए नियमों के उपबंध, किसी कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष उस संहिता के अध्याय 9 के अधीन कार्यवाहियों को लागू होंगे ।

(3) उपधारा (1) या उपधारा (2) की कोई बात, किसी कुटुम्ब न्यायालय को वाद या कार्यवाहियों की विषय-वस्तु की बाबत किसी समझौते पर या एक पक्षकार द्वारा अभिकथित और दूसरे पक्षकार द्वारा प्रत्याख्यापित तथ्यों की सत्यता पर पहुंचने की दृष्टि से अपनी प्रक्रिया अधिकथित करने से नहीं रोकेगी ।

11. कार्यवाहियों का बंद कमरे में किया जाना-ऐसे प्रत्येक वाद या कार्यवाही में, जिसे यह अधिनियम लागू होता है, यदि कुटुम्ब न्यायालय ऐसा चाहता है तो कार्यवाहियां बंद कमरे में की जा सकेंगी और यदि दोनों पक्षकारों में से कोई ऐसा चाहता है तो कार्यवाहियां बंद कमरे में की जाएंगी ।

12. चिकित्सा और कल्याण विशेषज्ञों की सहायता-प्रत्येक वाद या कार्यवाहियों में, कुटुम्ब न्यायालय को इस अधिनियम द्वारा अधिरोपित कृत्यों के निर्वहन में अपनी सहायता के प्रयोजनों के लिए किसी चिकित्सा विशेषज्ञ या ऐसे व्यक्ति की (अधिमानतः महिला की, यदि उपलभ्य हो) चाहे वह पक्षकारों का नातेदार हो या नहीं, जिसके अन्तर्गत कुटुम्ब के कल्याण की अभिवृद्धि में वृत्तिक तौर पर लगा हुआ ऐसा कोई व्यक्ति है, जिसे न्यायालय उचित समझे, सेवाएं प्राप्त करने की स्वतंत्रता होगी ।

13. विधिक प्रतिनिधित्व का अधिकार-किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी किसी कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष किसी वाद या कार्यवाही में कोई पक्षकार अधिकार के तौर पर इस बात का हकदार नहीं होगा कि उसका किसी विधि व्यवसायी द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाए :

परन्तु यदि कुटुम्ब न्यायालय न्याय के हित में यह आवश्यक समझता है तो वह किसी विधि विशेषज्ञ की न्याय-मित्र के रूप में सहायता ले सकेगा ।

14. भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 का लागू होना-कोई कुटुम्ब न्यायालय ऐसी किसी रिपोर्ट, कथन, दस्तावेज, जानकारी या बात को, जो उसकी राय में किसी विवाद में प्रभावकारी रीति से कार्यवाही करने में उसकी सहायता कर सकेगी, चाहे वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (1872 का 1) के अधीन अन्यथा सुसंगत या ग्राह्य हो या नहीं, साक्ष्य के रूप में प्राप्त कर सकेगा ।

15. मौखिक साक्ष्य का अभिलेख-किसी कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष वादों या कार्यवाहियों में, यह आवश्यक नहीं होगा कि साक्षियों का साक्ष्य विस्तार से अभिलिखित किया जाए किन्तु न्यायाधीश, जैसे-जैसे प्रत्येक साक्षी की परीक्षा होती जाती है वैसे-वैसे साक्षी ने जो अभिसाक्ष्य दिया है उसके सारांश का ज्ञापन अभिलिखित करेगा या अभिलिखित कराएगा और ऐसे ज्ञापन पर साक्षी और न्यायाधीश हस्ताक्षर करेगा और वह अभिलेख का भाग होगा

16. शपथपत्र पर औपचारिक साक्ष्य-(1) किसी व्यक्ति का ऐसा साक्ष्य, जो औपचारिक साक्ष्य है, शपथपत्र पर दिया जा सकेगा और सभी न्यायसंगत अपवादों के अधीन रहते हुए, किसी कुटुम्ब न्यायालय के समक्ष किसी वाद या कार्यवाही में साक्ष्य में पढ़ा जा सकेग ।

(2) यदि कुटुम्ब न्यायालय यह ठीक समझता है तो वह किसी ऐसे व्यक्ति को समन कर सकेगा और उसके शपथपत्र में अन्तर्विष्ट तथ्यों के बारे में उसकी परीक्षा कर सकेगा तथा वाद या कार्यवाही के पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर ऐसा करेगा ।

17. निर्णय-किसी कुटुम्ब न्यायालय के निर्णय में मामले का संक्षिप्त कथन, अवधार्य प्रश्न, उस पर उसका विनिश्चय और ऐसे विनिश्चय के कारण होंगे ।

18. डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन-(1) किसी कुटुम्ब न्यायालय द्वारा पारित किसी डिक्री या [दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन पारित आदेश से भिन्न] आदेश का वही बल और प्रभाव होगा जो किसी सिविल न्यायालय की किसी डिक्री या आदेश का होता है और उसका निष्पादन उसी रीति से किया जाएगा जो डिक्रियों और आदेशों के निष्पादन के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) द्वारा विहित की गई है ।

(2) किसी कुटुम्ब न्यायालय द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन पारित किसी आदेश का निष्पादन उस संहिता द्वारा ऐसे आदेश के निष्पादन के लिए विहित रीति से किया जाएगा ।

(3) किसी डिक्री या आदेश का निष्पादन उस कुटुम्ब न्यायालय द्वारा, जिसने वह पारित किया था या ऐसे किसी अन्य कुटुम्ब न्यायालय या मामूली सिविल न्यायालय द्वारा किया जा सकेगा जिसे वह निष्पादन के लिए भेजा गया है ।

अध्याय 5

[अपीलें और पुनरीक्षण]

19. अपील-(1) उपधारा (2) में जैसा उपबंधित है उसके सिवाय और सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) में या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में या किसी अन्य विधि में किसी बात के होते हुए भी, किसी कुटुम्ब न्यायालय के प्रत्येक निर्णय या आदेश की, जो अन्तर्वर्ती आदेश नहीं है, अपील उच्च न्यायालय में तथ्यों और विधि, दोनों के संबंध में होगी ।

(2) कुटुम्ब न्यायालय द्वारा पक्षकारों की सहमति से पारित 1[किसी डिक्री या आदेश की या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन पारित किसी आदेश की कोई अपील नहीं होगी :

परन्तु इस उपधारा की कोई बात कुटुम्ब न्यायालय (संशोधन) अधिनियम, 1991 के प्रारंभ के पूर्व किसी उच्च न्यायालय के समक्ष लम्बित किसी अपील या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन पारित किसी आदेश को लागू नहीं होगी ।]

                (3) इस धारा के अधीन प्रत्येक अपील, किसी कुटुम्ब न्यायालय के निर्णय या आदेश की तारीख से तीस दिन की अवधि के भीतर की जाएगी ।

                 [(4) उच्च न्यायालय, स्वप्रेरणा से या अन्यथा, ऐसी किसी कार्यवाही का, जिसमें उसकी अधिकारिता के भीतर स्थित कुटुम्ब न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के अध्याय 9 के अधीन कोई आदेश पारित किया है, अभिलेख, उस आदेश को, जो अन्तर्वर्ती आदेश न हो, तथ्यता, वैधता या औचित्य के बारे में और ऐसी कार्यवाही की नियमितता के बारे में अपना समाधान करने के प्रयोजन के लिए मंगा सकता है और उसकी परीक्षा कर सकता है ।]

                 [(5)] जैसा ऊपर कहा गया है उसके सिवाय, किसी कुटुम्ब न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश या डिक्री की किसी न्यायालय में कोई अपील या पुनरीक्षण नहीं होगा ।

3[(6)] उपधारा (1) के अधीन की गई किसी अपील की सुनवाई दो या अधिक न्यायाधीशों से मिलकर बनी किसी न्यायपीठ द्वारा की जाएगी ।

अध्याय 6

प्रकीर्ण

20. अधिनियम का अध्यारोही प्रभाव होना-इस अधिनियम के उपबंध, तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में या इस अधिनियम से भिन्न किसी विधि के आधार पर प्रभाव रखने वाली किसी लिखत में तद्संगत किसी बात के होते हुए भी प्रभावी होंगे ।

21. नियम बनाने की उच्च न्यायालय की शक्ति-(1) उच्च न्यायालय, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, ऐसे नियम बना सकेगा जो वह इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए आवश्यक समझे ।

(2) विशिष्टतया और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, ऐसे नियमों में निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों के लिए उपबंध किया जा सकेगा अर्थात् :-

(क) कुटुम्ब न्यायालयों के प्रसामान्य काम के घंटे और अवकाश दिनों में और प्रसामान्य काम के घंटों के बाहर कुटुम्ब न्यायालयों की बैठकें करना ;

(ख) कुटुम्ब न्यायालयों की बैठकों के मामूली स्थानों से भिन्न स्थानों पर उनकी बैठकें करना ;

                (ग) किसी समझौते पर पहुंचने के लिए पक्षकारों की सहायता करने और उन्हें मनाने के लिए किसी कुटुम्ब न्यायालय द्वारा किए जाने वाले प्रयास और अनुसरण की जानी वाली प्रक्रिया ।

22. नियम बनाने की केन्द्रीय सरकार की शक्ति-(1) केन्द्रीय सरकार, भारत के मुख्य न्यायमूर्ति की सहमति से, किसी न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए धारा 4 की उपधारा (3) के खंड (ग) में निर्दिष्ट अन्य अर्हताएं विहित करते हुए नियम, अधिसूचना द्वारा, बना सकेगी ।

(2) इस अधिनियम के अधीन केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाया गया प्रत्येक नियम, बनाए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र, संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष, जब वह सत्र में हो, कुल तीस दिन की अवधि के लिए रखा जाएगा । यह अवधि एक सत्र में अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी हो सकेगी । यदि उस सत्र के या पूर्वोक्त आनुक्रमिक सत्रों के ठीक बाद के सत्र के अवसान के पूर्व दोनों सदन उस नियम में कोई परिवर्तन करने के लिए सहमत हो जाएं तो तत्पश्चात् वह ऐसे परिवर्तित रूप में ही प्रभावी होगा । यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत हो जाएं कि वह नियम नहीं बनाया जाना चाहिए तो तत्पश्चात् वह निष्प्रभाव हो जाएगा । किन्तु नियम के ऐसे परिवर्तित या निष्प्रभाव होने से उसके अधीन पहले की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा ।

23. नियम बनाने की राज्य सरकार की शक्ति-(1) राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करने के पश्चात् इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम, अधिसूचना द्वारा बना सकेगी ।

(2) विशिष्टतया और उपधारा (1) के उपबन्धों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियमों में निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों के लिए उपबन्ध किया जा सकेगा, अर्थात् :-

                (क) धारा 4 की उपधारा (6) के अधीन न्यायाधीशों को संदेय वेतन या मानदेय और अन्य भत्ते तथा उनके अन्य निबन्धन और शर्तें ;

                (ख) परामर्शदाताओं के सहयोजन के निबन्धन और शर्तें तथा धारा 6 में निर्दिष्ट अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों की सेवा के निबन्धन और शर्तें ;

                (ग) धारा 12 में निर्दिष्ट चिकित्सा और अन्य विशेषज्ञों तथा अन्य व्यक्तियों की फीसों और व्ययों का (जिनके अन्तर्गत यात्रा व्यय हैं) राज्य सरकार के राजस्वों में से संदाय और ऐसी फीसों और व्ययों के मापमान ;

                (घ) धारा 13 के अधीन न्याय-मित्र के रूप में नियुक्त विधि व्यवसायियों की फीसों और व्ययों का राज्य सरकार के राजस्वों में से संदाय और ऐसी फीसों और व्ययों के मापमान ।

                (ङ) कोई अन्य विषय जो नियमों द्वारा विहित या उपबन्धित किया जाना अपेक्षित है या किया जाए ।

(3) इस अधिनियम के अधीन किसी राज्य सरकार द्वारा बनाया गया प्रत्येक नियम, बनाए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र, राज्य विधान-मण्डल के समक्ष रखा जाएगा ।

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