26 जून 1975 को बीते  एक जमाना गुजर चुका है। लेकिन  खौफ, संस्थाओं का अवमूल्यन, राजनीतिक स्वतंत्रता की हत्या, दमन, न्यायपालिका पर हमले और निर्भीक व स्वतंत्र पत्रकारिता पर आए संकट का मूल्यांकन अब भी जारी है। घटनाक्रम के मूल में श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा 1971 के मध्यावधि चुनाव में जनता से किए गए वायदे  एवं रायबरेली के स्वयं के चुनाव में की गई अनियमितता प्रमुख हैं।

असल में 1971 के मध्यावधि चुनाव की तिथियों का चयन स्वयं श्रीमती गांधी ने किया था। श्रीमती गांधी रायबरेली से चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुकी थीं। लेकिन संयुक्त विपक्ष का कोई बड़ा नेता उनके खिलाफ चुनाव लड़ने को तैयार नहीं था। 19 जनवरी 1971 को संयुक्त विपक्ष ने समाजवादी नेता राजनारायण की घोषणा की तो श्रीमती गांधी ने उनकी उम्मीदवारी को हल्के में  लेने का प्रयास किया। डॉ. लोहिया के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी के राजनारायण सदन के अंदर और बाहर श्रीमती गांधी के प्रबलल आलोचक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे।

9 मार्च को मतगणना होने पर श्रीमती गांधी लगभग एक लाख मतों के अंतर से  निर्वाचित हो गईं। विपक्ष इस हार को आसानी से स्वीकार करने को तैयार नहीं था। नतीजतन राजनारायण के वकील शांति भूषण द्वारा अदालत में गंभीर आरोपपत्र दाखिल किया गया।

आरोप पत्र में हिंदू महासभा उम्मीदवार स्वामी अद्वैतानंद को 50 हजार रुपये की रिश्वत देकर चुनाव मैदान में उतारना, मतदाताओं को लुभाने के लिए कंबल, धोती, शराब  आदि का इस्तेमाल के साथ साथ सबसे सनसनीखेज आरोप यशपाल कपूर की भूमिका को लेकर था, जो श्रीमती गांधी के ओएसडी रहते हुए उनके चुनाव एजेंट की भूमिका निभा रहे थे।

ज्यों ज्यों मुकदमा अंतिर दौर में पहुंचने लगा, समूचे देश की निगाहें इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर टिक गईं। हाईकोर्ट के नामी वकील सतीश चंद्र खरे श्रीमती गांधी के वकील थे। आजाद भारत में पहली बार किसी प्रधानमंत्री  को खुद अदालत जाकर गवाही देनी पड़ी।

आखिरकार 12 जून 1975 का दिन आ पहुंचा। जस्टिस सिन्हा के सचिव के घर पर सीआईडी के अफसर  मंडराने लगे। उन्हें डराने की कोशिश की गई। शांति भूषण को भी प्रलोभन दिए गए।  लेकिन 12 जून को जस्टिस सिन्हा ने श्रीमती गांधी को चुनाव में भ्रष्ट तरीके अख्तियार करने का दोषी मानकर उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया और छह वर्ष के लिए उन्हें अयोग्य  ठहरा दिया।

समूचे विपक्ष ने एक सुर से श्रीमती गांधी  के इस्तीफे की मांग की और राष्ट्रव्यापी आंदोलन के लिए मोरारजी भाई और नानाजी देशमुख के नेतृत्व में संघर्ष समिति बनाने का निर्णय किया। मगर श्रीमती गांधी ने इस्तीफा न देने की घोषणा  कर दी और चाटुकार उन्हें देश का पर्यायवाची बताने में जुट गए।

आखिरकार 25 जून की शाम को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक  विशाल जनसभा का आयोजन हुआ  जिसमें जयप्रकाश नारायण  द्वारा संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया गया। उन्होंने जनसभा में कहा, मैं आज सभी पुलिसकर्मियों और जवानों को आह्वान करता हूं कि इस सरकार के आदेश न माने, क्योंकि इस सरकार ने शासन करने की अपनी वैधता खो दी है।

इसके बाद  25 जून 1975 की मध्यरात्रि में देश में आपातकाल लगा दिया गया। जे. पी., मोरारजी भाई, चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, राजनारायण, मधु लिमये समेत दो  लाख नेताओं और कार्यकर्ताओं को बगैर कारण बताए डीआईआर और मीसा जैसे काले कानूनों में जेल भेज दिया गया।

कुलदीप नैयर समेत 200 पत्रकार गिरफ्तार किए गए। पीआईबी से अखबारों को निर्देश मिला कि बिना अनुमति के कोई समाचार प्रकाशित न किया जाए। आपातकाल सभी राजनीतिक दलों के लिए सबक है। पारिवारिक राज कायम करने हेतु कोई दल या नेता भविष्य में प्रयासरत न हो, इसके लिए दलों में आंतरिक लोकतंत्र कायम रहना चाहिए। किसी व्यक्ति या दल की सीमा से देश का मुकाम सदैव ऊंचा रहना चाहिए।

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