हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि शासकीय सेवक केवल प्रासंगिक नियमों के अनुसार पदोन्नति के लिए विचार किए जाने का अधिकार रखता है। नियमों में परिवर्तन या संशोधन के कारण पदोन्नति के अवसरों में यदि कोई कमी हो तो यह उसके मूलभूत अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा।

न ही यह मौलिक अधिकार हनन का मामला बनता है। हाईकोर्ट का यह फैसला न्याय दृष्टांत बन गया है। सुखसागर तांडे, दीपक कुमार व अनिल छारीने अपने अधिवक्ताओं के माध्यम से छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में याचिका दायर की है।

याचिकाकर्ताओं ने छत्तीसगढ़ लोक निर्माण इंजीनियरिंग (राजपत्रित) सेवा भर्ती नियम 2015 की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया है। याचिका में मध्य प्रदेश लोक निर्माण यांत्रिकी (राजपत्रित) सेवा भर्ती नियम 1969 को निरस्त कर उप अभियंता व ड्राफ्ट्समैन के लिए अलग-अलग कोटा निर्धारित करने की मांग की गई है।

दरअसल 1969 के नियम जिसमें 20 प्रतिशत की सीमा तक सब इंजीनियर (डिग्री धारक) के लिए अलग कोटा निर्धारित किया गया था। राज्य शासन ने इन नियमों में संशोधन कर दिया है। याचिकाकर्ताओं को सहायक अभियंता बिलासपुर के पद पर पदोन्नत किया जाना है। याचिकाकर्ता सब इंजीनियर (सिविल) हैं और वे डिग्री धारक हैं। मान्यता प्राप्त राज्य इंजीनियरिंग कालेज और नेशनल इंजीनियरिंग कालेज से डिग्री हासिल की है।

पदोन्नति के लिए निर्धारित उपरोक्त कोटा में संशोधन
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि मध्यप्रदेश शासन के दौरान उनकी भर्ती हुई थी। नियमों के मुताबिक सहायक अभियंता (सिविल) के रूप में पदोन्नत होने के लिए न्यूनतम आठ वर्ष की सेवा की आवश्यकता थी सहायक अभियंता (सिविल) के पद पर पदोन्नति के लिए 20 फीसद की सीमा तक अलग कोटा दिया गया था। अब शासन ने सहायक अभियंता (सिविल) के पद पर पदोन्नति के लिए निर्धारित उपरोक्त कोटा में संशोधन किया है और सभी उप-अभियंताओं को अलग-अलग कोटा आवंटित किया गया है।

शासन ने पेश किया जवाब
याचिका पर जवाब देते हुए राज्य शासन की ओर से कहा गया कि विभाग की संरचना और पैटर्न के आधार पर फीडर कैडर में पदों की विभिन्न श्रेणियों के पक्ष में पदोन्नति के लिए कोटा तय करना शासन का विशेषाधिकार है, जो मुख्य रूप से नीति-निर्माण क्षेत्र से संबंधित है।

पदोन्नति के लिए कोटा तय करने की राज्य की शक्ति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के तहत समानता की संवैधानिक योजना का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है। याचिकाकर्ता अपनी पदोन्नति की संभावनाओं में कमी से व्यथित हैं जो उनका मौलिक अधिकार नहीं है और इस प्रकार वे दावा नहीं कर सकते हैं। हाईकोर्ट ने शासन के इस जवाब को स्वीकार किया है।

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