लघु और आनुषंगिक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित संदाय पर ब्याज अधिनियम, 1993
(1993 का अधिनियम संख्यांक 32)
[3 अप्रैल, 1993]
लघु और आनुषंगिक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित संदायों
पर ब्याज के संदाय का उपबंध करने और उसका
विनियमन करने तथा उससे संसक्त या उसके
आनुषंगिक विषयों का उपबंध
करने के लिए
अधिनियम
भारत गणराज्य के चवालीसवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :-
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ-(1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम लघु और आनुषंगिक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित संदाय पर ब्याज अधिनियम, 1993 है ।
(2) इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत पर है ।
(3) यह 23 सितम्बर, 1992 को प्रवृत्त हुआ समझा जाएगा ।
2. परिभाषाएं-इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,-
(क) आनुषंगिक औद्योगिक उपक्रम" का वही अर्थ है, जो उसका उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951 (1951 का 65) की धारा 3 के खंड (कक) में है;
(ख) नियत दिन" से प्रदायकर्ता से क्रेता द्वारा किसी माल या किन्हीं सेवाओं की स्वीकृति के दिन या समझी गई स्वीकृति के दिन से तीस दिन की अवधि की समाप्ति के ठीक बाद का अगला दिन अभिप्रेत है ।
स्पष्टीकरण-इस खंड के प्रयोजनों के लिए,-
(i) स्वीकृति के दिन" से अभिप्रेत है,-
(क) माल के वास्तविक परिदान या सेवाओं के वस्तुतः दिए जाने का दिन; या
(ख) जहां माल के परिदान या सेवाओं के दिए जाने के दिन से तीस दिन के भीतर माल या सेवाओं की स्वीकृति के संबंध में क्रेता द्वारा लिखित रूप में कोई आक्षेप किया जाता है वहां वह दिन जिसको ऐसा आक्षेप प्रदायकर्ता द्वारा दूर किया जाता है;
(ii) समझी गई स्वीकृति के दिन" से, जहां माल के परिदान या सेवाओं के दिए जाने के दिन से तीस दिन के भीतर माल या सेवाओं की स्वीकृति के संबंध में क्रेता द्वारा लिखित रूप में कोई आक्षेप नहीं किया जाता है वहां माल के वास्तविक परिदान या सेवाओं के वस्तुतः दिए जाने का दिन अभिप्रेत है;
(ग) क्रेता" से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जो प्रदायकर्ता से प्रतिफल के लिए कोई माल क्रय करता है या कोई सेवा प्राप्त करता है;
(घ) माल" से हर प्रकार की जंगम संपत्ति अभिप्रेत है जो अनुयोज्य दावों और धन से भिन्न है;
(ङ) लघु औद्योगिक उपक्रम" का वही अर्थ है जो उसका उद्योग (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1951 (1951 का 65) की धारा 3 के खंड (ञ) में है;
(च) प्रदायकर्ता" से ऐसा आनुषंगिक औद्योगिक उपक्रम या लघु औद्योगिक उपक्रम अभिप्रेत है जो किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के उद्योग निदेशालय द्वारा दिया गया स्थायी रजिस्ट्रीकरण प्रमाणपत्र [धारण करता है और इसके अन्तर्गत-
(i) राष्ट्रीय लघु उद्योग निगम भी है, जो कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) के अधीन रजिस्ट्रीकृत एक कंपनी है;
(ii) किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र का लघु उद्योग विकास निगम भी है, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो, जो कंपनी अधिनियम, 1956 (1956 का 1) के अधीन रजिस्ट्रीकृत एक कंपनी है ।]
3. संदाय करने का क्रेता का दायित्व-जहां कोई प्रदायकर्ता किसी क्रेता को किसी माल का प्रदाय करता है या कोई सेवा देता है वहां क्रेता अपने और प्रदायकर्ता के बीच लिखित रूप में करार पाई गई तारीख को या उसके पूर्व अथवा जहां इस निमित्त कोई करार नहीं है वहां, नियत दिन के पूर्व उसके लिए संदाय करेगा :
[परन्तु किसी भी दशा में, प्रदायकर्ता और क्रेता के बीच लिखित रूप में करार पाई गई अवधि स्वीकृति के दिन या समझी गई स्वीकृति के दिन से एक सौ बीस दिन से अधिक नहीं होगी ।]
[4. वह तारीख जिससे और वह दर जिस पर ब्याज संदेय है-जहां कोई क्रेता प्रदायकर्ता को धारा 3 की अपेक्षानुसार रकम का संदाय करने में असफल रहता है वहां क्रेता, अपने और प्रदायकर्ता के बीच किसी करार में या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी, यथास्थिति, नियत दिन से या करार पाई गई तारीख के ठीक बाद की तारीख से उस रकम पर प्रदायकर्ता को भारतीय स्टेट बैंक द्वारा प्रभारित मूल उधार दर के डेढ़ गुना पर ब्याज का संदाय करने के लिए दायी होगा ।
स्पष्टीकरण-इस धारा के प्रयोजनों के लिए, मूल उधार दर" से भारतीय स्टेट बैंक की मूल उधार दर अभिप्रेत है जो बैंक के सर्वोत्तम उधार लेने वालों के लिए उपलब्ध है ।]
5. चक्रवृद्धि ब्याज का संदाय करने का क्रेता का दायित्व-प्रदायकर्ता और क्रेता के बीच किसी करार में या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में किसी बात के होते हुए भी, क्रेता, प्रदायकर्ता को देय रकम पर धारा 4 में उल्लिखित दर पर (मासिक अतिशेष पर) चक्रवृद्धि ब्याज का संदाय करने के लिए दायी होगा ।
6. देय रकम की वसूली- [(1)] क्रेता द्वारा देय रकम, और साथ ही धारा 4 और धारा 5 के उपबंधों के अनुसार संगणित ब्याज की रकम प्रदायकर्ता द्वारा क्रेता से तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन वाद लाकर या अन्य कार्यवाही करके वसूल की जा सकेगी ।
[(2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, किसी विवाद का कोई पक्षकार उस उपधारा में निर्दिष्ट विषयों की बाबत मध्यस्थ या सुलहकर्ता के रूप में कार्य करने के लिए उद्योग सुकरीकरण परिषद् को निर्देश कर सकेगा तथा माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 के उपबंध ऐसे विवाद को ऐसे लागू होंगे मानो माध्यस्थम् या सुलह, उस अधिनियम की धारा 7 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट किसी माध्यस्थम् करार के अनुसरण में हो ।]
7. अपील-किसी डिक्री, अधिनिर्णय या अन्य आदेश के विरुद्ध कोई अपील किसी न्यायालय या अन्य प्राधिकारी द्वारा तब तक ग्रहण नहीं की जाएगी जब तक कि अपीलार्थी ने (जो प्रदायकर्ता नहीं हैं), यथास्थिति, डिक्री, अधिनिर्णय या अन्य आदेश के निर्बंधनों के अनुसार उस रकम का पचहत्तर प्रतिशत, यथास्थिति, ऐसे न्यायालय या ऐसे प्राधिकारी द्वारा निर्दिष्ट रीति से उसके पास जमा न कर दिया हो ।
[7क. उद्योग सुकरीकरण परिषद् की स्थापना-राज्य सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, एक या अधिक उद्योग सुकरीकरण परिषद् ऐसे स्थानों पर ऐसी अधिकारिता का प्रयोग करने के लिए और ऐसे क्षेत्रों के लिए स्थापित कर सकेगी जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किए जाएं ।
7ख. उद्योग सुकरीकरण परिषद् की संरचना-(1) उद्योग सुकरीकरण परिषद् में एक या अधिक सदस्य होंगे जो निम्नलिखित प्रवर्गों में से नियुक्त किए जाएंगे: -
(i) राज्य सरकार का उद्योग निदेशक, चाहे वह किसी भी नाम से ज्ञात हो या कोई ऐसा अन्य अधिकारी जो ऐसे निदेशक की पंक्ति से नीचे का न हो;
(ii) बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के प्रतिनिधि;
(iii) राज्य उद्योग संगमों के पदाधिकारी या प्रतिनिधि; और
(iv) ऐसे व्यक्ति, जिनके पास उद्योग, वित्त, विधि, व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में विशेष ज्ञान है ।
(2) उपधारा (1) के खंड (i) के अधीन नियुक्त व्यक्ति उद्योग सुकरीकरण परिषद् का अध्यक्ष होगा ।
(3) उद्योग सुकरीकरण परिषद् की संरचना, उसके सदस्यों में रिक्तियां भरने की रीति और सदस्यों द्वारा अपने कृत्यों के निर्वहन में अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया वह होगी जो राज्य सरकार द्वारा, नियमों द्वारा, विहित की जाए ।
7ग. राज्य विधान-मंडल के समक्ष नियमों का रखा जाना-राज्य सरकार द्वारा इस अधिनियम के अधीन निकाली गई प्रत्येक अधिसूचना और बनाया गया प्रत्येक नियम, उसके निकाले या बनाए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र राज्य विधान-मंडल के समक्ष रखा जाएगा ।]
8. वार्षिक लेखा विवरण में ब्याज सहित असंदत्त रकम विनिर्दिष्ट करने की अपेक्षा-जहां किसी क्रेता से तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन अपने वार्षिक लेखाओं की संपरीक्षा कराने की अपेक्षा की जाती है वहां ऐसा क्रेता अपने वार्षिक लेखा विवरण में ब्याज सहित वह रकम विनिर्दिष्ट करेगा जो किसी प्रदायकर्ता को प्रत्येक लेखावर्ष के अंत में असंदत्त रह जाती है ।
9. ब्याज का आय से कटौती के रूप में अनुज्ञात न किया जाना-आय-कर अधिनियम, 1961 (1961 का 43) में किसी बात के होते हुए भी, किसी क्रेता द्वारा इस अधिनियम के उपबंधों के अधीन या उसके अनुसार संदेय या संदत्त ब्याज की रकम, उस अधिनियम के अधीन आय की संगणना के प्रयोजनों के लिए, कटौती के रूप में अनुज्ञात नहीं की जाएगी ।
10. अध्यारोही प्रभाव-इस अधिनियम के उपबंध, तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में उससे असंगत किसी बात के होते हुए भी, प्रभावी होंगे ।
11. निरसन और व्यावृत्ति-(1) लघु और आनुषंगिक औद्योगिक उपक्रमों को विलंबित संदाय पर ब्याज अध्यादेश, 1993 (1993 का अध्यादेश संख्यांक 4) इसके द्वारा निरसित किया जाता है ।
(2) ऐसे निरसन के होते हुए भी, इस प्रकार निरसित अध्यादेश के अधीन की गई कोई भी बात या कार्रवाई इस अधिनियम के तत्स्थानी उपबंधों के अधीन की गई समझी जाएगी ।
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