अल्पवय व्यक्ति (अपहानिकर प्रकाशन)
अधिनियम, 1956
(1956 का अधिनियम संख्यांक 93)
[28 दिसम्बर, 1956]
अल्पवय व्यक्तियों के लिए अपहानिकर
कतिपय प्रकाशनों के प्रसार को
रोकने के लिए
अधिनियम
भारत गणराज्य के सातवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :-
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ-(1) यह अधिनियम अल्पवय व्यक्ति (अपहानिकर प्रकाशन) अधिनियम, 1956 कहा जा सकता है ।
(2) इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर है ।
(3) यह उस तारीख को प्रवृ्त्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा नियत करे ।
2. परिभाषाएं-इस अधिनयम में,-
(क) “अपहानिकर प्रकाशन" से कोई ऐसी पुस्तक, पत्रिका, पुस्तिका, पत्रक, समाचारपत्र या अन्य वैसा ही प्रकाशन अभिप्रेत है जिसमें चित्रों की सहायता से या चित्रों के बिना अथवा पूर्णरूपेण चित्रों में कही गई कहानियां हैं और जो पूर्णतः या मुख्यतः-
(i) अपराधों के किए जाने को ; या
(ii) हिंसा या क्रूरता के कार्यों को ; या
(iii) जुगुप्साकारी अथवा भयावह प्रकार की घटनाओं को,
ऐसी रीति में चित्रित करने वाली कहानियां हैं कि समग्र रूप में उस प्रकाशन की प्रवृत्ति यह होगी कि वह जिस अल्पवय व्यक्ति के भी हाथ में पड़े उसे, अपराधों या हिंसा या क्रूरता के कार्यों को करने के लिए उद्दीप्त या प्रोत्साहित करके, या किसी अन्य रीति से भ्रष्ट करे ;
(ख) “राज्य सरकार" से किसी संघ राज्यक्षेत्र के सम्बन्ध में उसका प्रशासक अभिप्रेत है ;
(ग) “अल्पवय व्यक्ति" से बीस वर्ष से कम आयु वाला व्यक्ति अभिप्रेत है ।
3. अपहानिकर प्रकाशनों के विक्रय आदि के लिए शास्ति-(1) यदि कोई व्यक्ति,
(क) किसी अपहानिकर प्रकाशन को बेचेगा, भाड़े पर देगा, वितरित करेगा, सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करेगा या किसी रीति से परिचालित करेगा, अथवा
(ख) विक्रय, भाड़े, वितरण, सार्वजनिक प्रदर्शन या परिचालन के प्रयोजनों के लिए किसी अपहानिकर प्रकाशन को मुद्रित, रचित या उत्पादित करेगा या अपने कब्जे में रखेगा, अथवा
(ग) यह विज्ञापित करेगा या किसी भी साधन के द्वारा यह ज्ञात कराएगा कि कोई अपहानिकर प्रकाशन किसी व्यक्ति से या उसके माध्यम से उपाप्त किया जा सकता है,
तो वह कारावास से, जो छह मास तक का हो सकेगा, या जुर्माने से, अथवा दोनों से, दंडनीय होगा ।
(2) इस धारा के अधीन दोषसिद्धि पर न्यायालय उस अपहानिकर प्रकाशन की सब प्रतियों को नष्ट करने का आदेश दे सकेगा जिनके सम्बन्ध में दोषसिद्धि हुई और जो न्यायालय की अभिरक्षा में हैं या सिद्धदोष व्यक्ति की शक्ति या कब्जे में बची हैं ।
4. अपहानिकर प्रकाशनों को समपहृत घोषित करने की सरकार की शक्ति-(1) यदि राज्य के प्रधान विधि अधिकारी से परामर्श के पश्चात् चाहे वह महाधिवक्ता या किसी भी अन्य नाम से ज्ञात हो, राज्य सरकार की यह राय है कि कोई प्रकाशन अपहानिकर प्रकाशन है तो वह शासकीय राजपत्र में अधिसूचित आदेश द्वारा घोषित कर सकेगी कि ऐसे प्रकाशन की प्रत्येक प्रति सरकार को समपहृत हो जाएगी और प्रत्येक ऐसी अधिसूचना में आदेश का आधार कथित होगा ।
(2) धारा 6 की उपधारा (1) के उपबन्धों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना यह है कि जहां किसी प्रकाशन के सम्बन्ध में उपधारा (1) के अधीन समपहरण का आदेश है वहां किसी भी पुलिस अधिकारी के लिए उन राज्यक्षेत्रों में जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है जहां कहीं भी वह पाया जाए उसे अभिगृहीत करना विधिपूर्ण होगा ।
5. समपहरण के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील-धारा 4 के अधीन राज्य सरकार द्वारा किए गए समपहरण के किसी आदेश से व्यथित कोई व्यक्ति ऐसे आदेश को अपास्त करने के लिए आवेदन ऐसे आदेश की तारीख से साठ दिन के अन्दर उच्च न्यायालय में कर सकेगा और उच्च न्यायालय ऐसे आवेदन पर ऐसा आदेश दे सकेगा जैसा वह ठीक समझता है ।
6. अपहानिकर प्रकाशनों को अभिगृहीत और नष्ट करने की शक्ति-(1) कोई पुलिस अधिकारी या कोई भी अन्य अधिकारी जो राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त सशक्त हो, किसी भी अपहानिकर प्रकाशन को अभिगृहीत कर सकेगा ।
(2) प्रथम वर्ग का कोई मजिस्ट्रेट, उपनिरीक्षक की पंक्ति से नीचे न होने वाले किसी पुलिस अधिकारी को वारंट द्वारा प्राधिकृत कर सकेगा कि वह किसी ऐसे स्थान में प्रवेश करे और तलाशी ले जहां अपहानिकर प्रकाशनों का कोई स्टाक हो या उसके होने का युक्तियुक्त संदेह हो, और ऐसा पुलिस अधिकारी ऐसे स्थान में पाए गए किसी प्रकाशन को अभिगृहीत कर सकेगा यदि उसकी राय में वह अपहानिकर प्रकाशन हो ।
(3) उपधारा (1) के अधीन अभिगृहीत कोई प्रकाशन यथाशक्य शीघ्र किसी प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा और उपधारा (2) के अधीन अभिगृहीत कोई प्रकाशन यथाशक्य शीघ्र उस न्यायालय के समक्ष, जिसने वारंट जारी किया था, पेश किया जाएगा ।
(4) यदि उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय की राय में ऐसा प्रकाशन अपहानिकर प्रकाशन है तो वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय उसे नष्ट करा सकेगा किन्तु यदि उस मजिस्ट्रेट या न्यायालय की राय में ऐसा प्रकाशन अपहानिकर प्रकाशन नहीं है तो वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय उसका व्ययन दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) की धारा 523, 524 और 525 में उपबन्धित रीति से करेगा ।
7. इस अधिनियम के अधीन अपराधों का संज्ञेय होना-दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) में किसी बात के होते हुए भी इस अधिनियम के अधीन दंडनीय कोई अपराध संज्ञेय होगा ।
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